SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचयाँ अधिकार - ६१ होने की इच्छा करी सो जानिये है कि बहुत होने का कार्य किया होय सो भोलप ही तैं किया, आगामी ज्ञान कार किया होता तो काहेको ताके दूरि करने की इच्छा होती । बहुरि जो परमब्रह्म की इच्छा बिना ही महेश संहार करै है तो यहु परमब्रह्म का वा ब्रह्म का विरोधी भया । बहुरि पूछे हैं यहु महेश लोक को कैसे संहार करै है। अपने अंगनिहीकरि संहार करे है कि इच्छा होतं स्वयमेव ही संहार होय है? जो अपने अंगनिकरि संहारकर है तो सर्वका युगपत्संहार कैसे करे है ? बहुरि याकी इच्छा होतें स्वयमेव संहार हो है तो इच्छा तो परमब्रह्म कीन्हीं थी, यानैं संहार कहा किया ? बहुरि हम पूछे हैं कि संहार भए सर्व लोकविषे जीव अजीव थे ते कहाँ गए ? तब वह कहै हैजीवनिविषै भक्त तो ब्रह्म विषै मिले, अन्य मायाविषै मिले। अब याको पूछिये है कि माया ब्रह्मतें जुदी रहे है कि पीछे एक होय जाय है। जो जुदी रहे है तो ब्रह्मवत् माया भी नित्य भई । तब अद्वैतब्रह्म न रह्या 1 अर माया ब्रह्म में एक होय जाय है तो जे जीव माया में मिले थे तैं भी माया की साथि ब्रह्म में मिल गए तो महाप्रलय हो सर्वका परमब्रह्म में मिलना ठहत्या ही तो मोक्ष का उपाय काहेको करिए। बहुरि जे जीव माया में मिले से, बहुरि लोकरचना भए वे ही जीव लोकविषे आयेंगे कि वे तो ब्रह्म में मिल गए थे कि नए उपजेंगे। जो ये ही आदेंगे तो जानिए है जुदे-जुदे रहे हैं, मिले काहेको कहो । अर नए उपजेंगे तो जीवका अस्तित्व थोरा कालपर्यंत ही रहे, काहेको मुक्त होने का उपाय कीजिए । बहुरि वह कहे कि पृथिवी कि याविषै मिले हैं सो माया अमूर्तीिक सचेतन है कि मूर्तीक अचेतन है जो अमूर्त्तीक सचेतन है तो अमूर्तीिक में मूर्तीक अचेतन कैसे मिले? अर मूर्तीक अचेतन है तो बहु ब्रह्म में मिले है कि नाहीं जो मिले है तो याके मिलने तैं ब्रह्म भी मूर्तीक अचेतनकरि मिश्रित भया । अर न मिले है तो अद्वैतता न रही। अर तू कहेगा ए सर्व अमूर्त्तीक अचेतन होइ जाय हैं तो आत्मा अर शरीरादिककी एकता भई सो यहु संसारी एकता माने ही है, याको अज्ञानी काहेको कहिए। बहुरि पूछे हैं-लोक का प्रलय होते महेश का प्रलय हो है कि न हो है । जो हो है तो युगपत् हो है कि आगे पीछे हो है। जो युगपत् हो है तो आप नष्ट होता लोक को नष्ट कैसे करै अर आगे पीछे हो है तो महेश लोकको नष्टकरि आप कहाँ रह्या, आप भी तो सृष्टिविषै ही था, ऐसे महेश को सृष्टि का संहारकर्ता माने हैं सो असम्भव है । या प्रकारकरि वा अन्य अनेक प्रकारनिकरि ब्रह्मा विष्णु महेश को सृष्टि का उपजावनहारा, रक्षो करनहारा, संहार करनहारा मानना न वने, तार्ते लोक को अनादिनिधन मानना । लोक की अनादिनिधनता इस लोकविष जे जीवादि पदार्थ है ते न्यारे-न्यारे अनादिनिधन हैं । बहुरि तिनकी अवस्था की पलटन हुक करे है। तिस अपेक्षा उपजते विनशते कहिये है। बहुरि जे स्वर्ग नरक द्वीपादिक हैं ते अनादितें ऐसे ही हैं अर सदाकाल ऐसे ही रहेंगे। कदाचित् तू कहेगा बिना बनाए ऐसे आकारादिक कैसे भए, सो भए होय तो बनाये ही होय । सो ऐसा नाहीं है जातें अनादितें ही जे पाइए तहाँ तर्क कहा। जैसे तू परमब्रह्म का स्वरूप अनादिनिधन माने है तैसे ए जीवादिक वा स्वर्गादिक अनादिनिधन मानिए हैं। तू कहेगा जीवादिक
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy