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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-६० ऐसी झूटी कल्पना काहेको कीजिए। के तो बुरा वा भला दोऊ विष्णु का किया कहो, के अपना कर्तव्यका फल कहो। जो विष्णु का किया भया तो घने जीव दुःखी अर शीघ्र मरते देखिए हैं सो ऐसा कार्य करै ताको रक्षक कैसे कहिए? बहुरि अपने कर्तव्य का फल है तो करेगा सो पायेगा, विष्णु कहा रक्षा करेगा? तब वह कहै है, जे विष्णु के भक्त हैं तिनकी रक्षा करै है। याको कहिए है कि जो ऐसा है तो कीड़ी कुन्जर आदि भक्त नाहीं उनकै अन्नादिक पहुंचावने विष वा संकट में सहाय होने विषै वा परण न होने विषै विष्णु का कर्त्तव्य मानि सर्व का रक्षक काहे को माने, भक्तनिही का रक्षक मानि। सो भक्तनिका भी रक्षक दीसता नाही जातें अभक्त हैं ते भक्त पुरुषनिको पीड़ा उपजावतै देखिए हैं। तब वह कहै है- धनी ही जायगा(जगह) प्रहलादादिककी सहाय करी है। याको कहै हैं- जहाँ सहाय करी तहाँ तो तू तैसे ही मानि परन्तु हम तो प्रत्यक्ष म्लेच्छ मुसलमान आदि अभक्त पुरुपनिकरि भक्त पुरुष पीड़ित होते देखि वा मन्दिरादिको विघ्न करते देखि पूछे हैं कि इहौं सहाय न करे है सो शक्ति ही नाही, कि खबर ही नाहीं। जो शक्ति नाही तो इन” भी हीनशक्तिका धारक भया। खबर ही नाहीं तो जाको एती भी खबर नाही सो अज्ञान भया । अर जो तू कहेगा, शक्ति भी है अर जान भी है, इच्छा ऐसी ही भई, तो फिर भक्तवत्सल काहेको कहे है। ऐसे विष्णु की लोक का रक्षक मानना बनता नाहो। बहुरि वे कहै हैं- महेश संहार कर है सो वाको पूछिए है। प्रथम तो महेश संहार सदा करै है कि महाप्रलय हो है तब ही करै है। जो सदः करे है तो जैसे विष्णु की रक्षा करनेकरि स्तुति कीनी, तैसे याको संहार करवेकरि निंदा करो। जातें रक्षा अर संहार प्रतिपक्षी हैं। बहुरि यहु संहार कैसे करै है? जैसे : पुरुष हस्तादिककार काहूको मारै वा कहकरि मरावै सैसे महेश अपने अंगनिकार संहार करै है या आशाकरि मरावै है। तो क्षण-क्षण में संहार तो घने जीवनिका सर्व लोक में हो है, यह कैसे कैसे अंगनिकार या कौन कौनको आज्ञा देय युगपत् कैसे संहार कर है। बहुरि महेश तो इच्छा ही करे, याकी इच्छात स्वयमेव उनका संहार हो है। तो याके सदा काल मारने रूप दुष्ट परिणाम ही रहा करते होंगे अर अनेक जीवनिके युगपत् मारने की इच्छा कैसे होती होगी। बहुरि जे. महाप्रलय होते संहार करै है तो परमब्रह्मकी इच्छा भए करे है कि वाकी बिना इच्छा ही करै है। जो इच्छा भए करै है तो परमब्रह्म के ऐसा क्रोध कैसे भया जो सर्वका प्रलय करने की इच्छा भई। जाते कोई कारण बिना नाश करने की इच्छा होय नाहीं। अर नाश करने की जो इच्छा ताहीका नाम क्रोध है सो कारन बताय। बहुरि तू कहेगा-परमब्रह्म यह ख्याल (खेल) बनाया था बहुरि दूर किया, कारन किछू भी नाहीं। तो ख्याल बनायने वाला को भी ख्याल इष्ट लागै तब बनावै है, अनिष्ट लागै है तब दूरकरे है। जो याको यहु लोक इष्ट अनिष्ट लागै है तो याके लोकस्पों रागद्वेष तो भया साक्षीभूत ब्रह्म का स्वरूप काहेको कहो हो, साकीभूत तो याका नाम है जो स्वयमेव जैसे होय तैसे देख्या जान्या करे। जो इष्ट अनिष्ट मान उपजावे, नष्ट गरे ताको साक्षीभूत कैसे कहिए, जाते साक्षीभूत रहना अर कर्ता हर्ता होना ए दोऊ परस्पर विरोधी हैं। एए के दोऊ सम्भवै नाहीं। बहुरि परमब्रह्म के पहिले तो इच्छा यहु भई थी कि 'मैं एक हूँ सो बहुत होस्यूं सब बहुत भया। अब ऐसी इच्छा भई होसी जो "मैं बहुत हूँ सो एक होस्यूं सो जैसे कोऊ भोलपते कार्यकरे पीछे तिस कार्यको दूरकिया चाहै, तैसे परमब्रह्म भी बहुत होय एक
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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