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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१६० केवलज्ञानस्वभाव कहा है, सो शक्ति अपेक्षा कया है। सर्वनीवनिविर्ष केवलज्ञानादिरूप होने की शक्ति है। वर्तमान व्यक्तता तो व्यक्त भए ही कहिए। आत्मा के प्रदेशों में केवलज्ञान का निषेध कोऊ ऐसा मानै है- आत्माके प्रदेशनिविषै तो केवलज्ञान ही है, ऊपरी आवरणः प्रगट न हो है सो यहु भ्रम है। जो केवलज्ञान होइ तो वज्रपटलादि आड़े होते भी वस्तुको जानै। कर्मको आड़े आए कैसे अटकै। ता” कर्मके निमित्तनैं केवलज्ञानका अभाव ही है। जो याका सर्वदा सद्भाव रहे है तो याको पारिणामिकमाव कहते, सो यह तो भायिकभाव है। सर्वभेद जामै गर्भित ऐसा चैतन्यभाव सो पारिणामिक भाव है। याकी अनेक अवस्था मतिज्ञानादिरूप वा केवलज्ञानादिरूप है, सो ए पारिणामिकभाव नाहीं। ताते केवलज्ञानका सर्वदा सद्भाव न मानना । बहुरि जो शास्वाना सूर्यको दृष्टान्त दिया है, ताका इतना ही भाय लेना, जैसे मेघपटल होते सूर्य प्रकाश प्रगट न हो है, तैसे कर्मउदय होते केवलझान न हो है। बहुरि ऐसा भाव न लेना, जैसे सूर्यविष प्रकाश रहै है, तैसे आत्मविषे केवलज्ञान रहै है। जाते दृष्टांत सर्व प्रकार मिलै नाहीं । जैसे पुद्गल विषै वर्ण गुण है, ताकी हरित पीतादि अवस्था है। सो वर्तमान विर्ष कोई अवस्था होते अन्य अवस्थाका अभाव है। तैसे आत्मविषे चैतन्यगुण है, ताकी पतिज्ञानादिरूप अवस्था है। सो वर्तमान कोई अवस्था होते अन्य अवस्थाका अभाव ही है। बहुरि कोऊ कहै कि आवरण नाम तो वस्तु के आच्छादनेका है, केवलज्ञान सद्भाव नाहीं है तो केवलज्ञानावरण काहेको कहो हो? । ताका उत्तर-यहाँ शक्ति है ताको व्यक्त न होने दे, इस अपेक्षा आवरण कह्या है। जैसे देशचारित्रका अभाव होते शक्ति घातने की अपेक्षा अप्रत्याख्यानावरण कषाय कह्या तैसे जानना । बहुरि ऐसे जानो-वस्तु विषै जो परनिमित्तते भाव होय ताका नाम औपाधिकभाव है अर पर निमित्त बिना जो भाव होय ताका नाम स्वभाव भाव है। सो जैसे जलकै अग्निका निमित्त होते उष्णपनो भयो, तहाँ शीतलपना का अभाव ही है। परन्तु अग्निका निमित्त मिटे शीतलता ही होय जाय तातै सदाकाल जलका स्वभाव शीतल कहिए, जात ऐसी शक्ति सदा पाईए है। बहुरि व्यक्त भए स्वभाव व्यक्त भया कहिए । कदाचित् व्यक्तरूप हो है। तैसे आत्माकै कर्मका निमित्त होते अन्य रूप भयो, तहाँ केवलज्ञानका अभाव ही है। परन्तु कर्म का निमित्त मिटे सर्वदा केवलज्ञान होय जाय । तातें सदाकाल आत्माका स्वभाव केवलज्ञान कहिए है। जातें ऐसी शक्ति सदा पाईए है। व्यक्त भए, स्वभाव व्यक्त भया कहिए। बहुरि जैसे शीतल स्वभावकरि उष्ण जल को शीतल मानि पानादि करे, तो दाझना ही होय। तैसे केवलज्ञान स्वभावकरि अशुद्ध आत्माको केवलज्ञानी मानि अनुभवै, तो दुःखी ही होय। ऐसे जे केयलन्नानादिकरूप आत्माको अनुभयै हैं, ते मिथ्यादृष्टि है। रागादिक के सद्भाव में आत्मा को रागरहित मानने का निषेध बहुरि रागादिक भाव आपकै प्रत्यक्ष होते प्रमकरि आत्माको रागादिरहित माने। सो पूछिए है- ए रागादिक तो होते देखिए हैं, ए किस द्रव्य के अस्तित्वविष हैं। जो शरीर वा कर्मरूपपुद्गलके अस्तित्ववियु
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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