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________________ सातवाँ अधिकार-१६१ होय तो ए भाव अचेतन वा मूर्तीक होय। सो तो ए रागादिक प्रत्यक्ष चेतनता लिए अमूर्तीक भावे मासै है। ता” ए भाव आत्मा ही के हैं। सोई समयसारके कलशविषे कह्या है कार्यत्वादकृत न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्धयोरझायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलमुग्भायानुषंगात् कृतिः। नैकस्याः प्रकृसेरचित्वलसनाम्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत् पुद्गलः ।। (सर्ववि. अधिकार कलश २०३) याका अर्थ-यह रागादिरूप भावकर्म है, सो काहूकरि न किया, ऐसा नहीं है, जातें यह कार्यभूत है। बहुरि जीव अर कर्मप्रकृति इन दोऊनिका भी कर्तव्य नाहीं जात ऐसे होय तो अबेतन कर्मप्रकृतिक भी तिस भावकर्मका फल सुख-दुःख ताका भोगवना होइ, सो असंभव है। बहुरि एकली कर्मप्रकृतिका भी यह कर्तव्य नाही, जाते वाकै अचेतनपनो प्रगट है। तातै इस रागादिक का जीव ही कर्ता है अर सो रागादिक जीव ही का कर्म है। जातै भावकर्म तो चेतना का अनुसारी है, चेतना बिना न होइ। अर पुद्गल जाता है नाहीं। ऐसे रागादिकभाव जील के अस्तित्वनिष हैं.। अन्नको गणादिक, माननिका निमित्त कर्मही को मानि आपको रागादिकका अकर्ता मानै है, सो कर्ता तो आप अर आपको निरुद्यमी होय प्रमादी रहना, तातै कर्म ही का दोष ठहराव है। सो यहु दुःखदायक भ्रम है। सोई समयसारका कलशा विषे कहा है रागजन्मनि निमित्तता परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते। उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनीं शुखबोधयिषुरान्ययुद्धयः॥ (सर्व वि. अधिकार कलश २२१) याका अर्थ- जे जीव रागादिककी उत्पत्तिविष परद्रव्यहीको निमित्तपनो मानै है, ते जीव शुख ज्ञानकरि रहित हैं अंधबुद्धि जिनकी ऐसे होत संते मोहनदीको नाहीं उतरे है। बहुरि समयसारका 'सर्वविशुद्धिअधिकार' विषै जो आत्मा को अकर्ता मानै है अर यह कहै है- कर्म ही जगावै सुवावे है, परघात कर्मत हिंसा है, वेदकर्मत अब्रह्म है, ताः कर्म ही कर्ता है; तिस जैनीको सांख्यमती कला है। जैसे सांख्यमती आत्माको शुद्ध मानि स्वच्छन्द हो है, तैसे ही यह भया। बहुरि इस श्रद्धानतें यहु दोष भया, जो रागादिक अपने न जाने आपको अकर्ता मान्या, तब रागादिक होने का भय रक्षा नाही वा रागादिक मेटने का उपाय करना रमा नाही, तब स्वच्छन्द होय खोटे कर्म बॉपि अनंत संसारविष रुल है। यहाँ प्रश्न - जो समयसारविषे ही ऐसा कह्या है वर्णाधा या रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः स एवास्य पुंसः।' १. वर्णाया वा रागमोहादयो वा भिन्नाः भावाः सर्द एवास्य पुंसः। तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दृष्टमेके परं स्यात् ।। (जीवाजी. कलश ३७)
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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