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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक -१६२ याका अर्थ- वर्णादिक वा रागादिकभाव हैं, ते सर्व ही इस आत्माते भिन्न हैं। बहुरि तहाँ ही रागादिकको पुद्गलमय कहे हैं। वारे अन्य शास्त्रवि मी माविक भिन्न- आत्मा को कह्या है, सो यहु कैसे है? ताका उत्तर-रागादिक भाव परद्रव्य के निमित्ततें औपाधिकभाव हो है अर यह जीव तिनिको स्वभाव जानै है। जाको स्वभाव जाने, ताको बुरा कैसे मानै वा ताके नाश का उद्यम काहेको करै। सो यहु श्रद्धान भी विपरीत है। ताके छुड़ावने को स्वभाव की अपेक्षा रागादिक को भिन्न कहै हैं अर निमित्त की मुख्यताकरि पुद्गलमय कहे हैं। जैसे वैद्य रोग मेट्या चाहै है; जो शीतका आधिक्य देखै तो उष्ण औषधि बतायै अर आतापका आधिक्य देखै तो शीतल औषधि बतावै तैसे श्रीगुरु रागादिक छुड़ाया चाहै है। जो रागादिक परक मानि स्वच्छन्द हो निरुद्यमी होय, ताको उपादान कारण की मुख्यताकरि रागादिक आत्मा का है, ऐसा श्रद्धान कराया। बहुरि जो रागादिक आपका स्वभावमानि तिनिका नाश का उद्यम नाहीं करै है ताको निमित्त कारण की मुख्यताकरि रागादिक परभाव है, ऐसा श्रद्धान कराया है। दोऊ विपरीत श्रद्धानते रहित भए सत्य श्रद्धान होय तब मान-ए रागादिक भाव आत्मा का स्वभाव तो नाहीं हैं, कर्म के निनित्तते आत्मा के अस्तित्ववियु विभावपर्याय निपजे है। निमित्त मिटे इनका नाश होते स्वभावभाव रहि जाय है। ताः इनिके नाश का उद्यम करना। यहाँ प्रश्न-जो कर्म का निमित्त तैं ए हो हैं, तो कर्म का उदय रहै तावत् ए विभाव दूरि कैसे होय? ताते याका उद्यम करना तो निरर्थक है। ताका उत्तर- एक कार्य होनेयिष अनेक कारण चाहिए है तिनविषे जे कारण बुद्धिपूर्वक होय, तिनको तो उद्यम करि मिलावै अर अबुद्धिपूर्वक कारण स्वयमेव मिलै तब कार्यसिद्धि होय। जैसे पुत्र होने का कारण बुद्धिपूर्वक तो विवाहादिक करना है अर अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है। तहाँ पुत्र का अर्थी विवाहादिकका तो उद्यम करै अर भवितव्य स्वयमेव होय, तब पुत्र होय । तैसे विभाव दूरि करने के कारण बुद्धिपूर्वक तो तत्वविचारादिक हैं अर अबुद्धिपूर्वक मोहकर्म का उपशमादिक है। सो ताका अर्थी सत्त्वविचारादिकका तो उद्यम करै अर मोहकर्म का उपशमादिक स्वयमेव होय, तब रागादिक दूरि होय । ___ यहाँ ऐसा कहै है कि जैसे विवाहादिक भी भवितव्य आधीन है, तैसे तत्त्वविचारादिक भी कर्म का क्षयोपशमादिक के आधीन हैं, तातें उद्यम करना निरर्थक है। ताका उत्तर-ज्ञानावरण का तो क्षयोपशम तत्त्वविचारादिक करने योग्य तेरे भया है। याहीत उपयोग को यहाँ लगावने का उद्यम कराइए है। असंज्ञी जीवनिकै क्षयोपशम नाहीं है, तो उनको काहेको उपदेश दीजिए है। बहुरि वह कहै है- होनहार होय तो तहाँ उपयोग लागे, बिना होनहार कैसे लागै? ताका उत्तर- जो ऐसा श्रद्धान है तो सर्वत्र कोई ही कार्य का उद्यम मति करै। तू खानपान व्यापारादिकका तो उद्यम करै अर यहाँ होनहार बतावै। सो जानिए है, तेरा अनुराग यहाँ नाहीं। मानादिक
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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