SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमा अधिकार-२६८ ही का करै- धर्मकार्यका पुरुषार्थ होय सकै नाहीं। तातै विचारशक्तिसहित होय अर जिसके रागादिक मन्द होय, सो जीव पुरुषार्थकरि उपदेशादिकके निमित्त” तत्त्वनिर्णयादिविष उपयोग लगावै, तो याका उपयोग तहाँ लगे, तब याका भला होय । बहुरि इस अवसरविष भी तत्त्वनिर्णय करनेका पुरुषार्थ न करे, प्रमाद काल गमावै । के तो मन्दरागादि लिए विषयकषायनिके कार्यनिहीविष प्रवत्र्त, के व्यवहार धर्मकार्यनिविष प्रवत्त; तब अवसर तो जाता रहै, संसारहीविष प्रमण होय। बहुरि इस अवसरविषै जे जीव पुरुषार्थकरि तत्त्वनिर्णय करने विषै उपयोग लगावनेका अभ्यास राखे, तिनिकै विशुद्धता बधे, ताकरि कर्मनिकी शक्ति हीन होय। कितेक कालविवे आपआप दर्शनमोहका उपशम होय तब याकै तत्त्वनिकी यथावत् प्रतीति आवै। सो याका तो कर्तव्य तत्त्वनिर्णयका अभ्यास ही है। इसहीत दर्शनमोहका उपशम सो स्वयमेव होय । यामें जीवका कर्तव्य किछू नाहीं । बहुरि ताको होते जीवकै स्वयमेव सम्यग्दर्शन होय । बहुरि सम्यग्दर्शन होते प्रधान तो यहु भया- मैं आत्मा हूँ , मुझको रागादिक न करने परन्तु चारित्रमोहके उदयते रागादिक हो । तहाँ तीव्र उदय होय, तब तो विषयादिविष प्रवर्ते है। अर मन्द उदय होय, तब अपने पुरुषार्थ धर्मकार्यनिविष वा वैराग्यादिभावनाविधै उपयोगको लगाव है ताके निमित्ततें चारित्रमोह मन्द होता जाय, ऐसे होते देशचारित्र वा सकलचारित्र अंगीकार करने का पुरुषार्थ प्रगट होय। बमुनि चाचित्रको प्रति अपना मुरुगाईगरि यति । पतिको बधावै, तहाँ विशुद्धता करि कर्मकी हीन शक्ति होय, तात विशुद्धता बध, ताकरि अधिक कर्मकी शक्ति हीन होय । ऐसे क्रमते मोहका नाश करै तब सर्वथा परिणाम विशुद्ध होय तिनकार ज्ञानावर्णादिका नाश होय तब केवलज्ञान प्रगट होय। तहाँ पीछे बिना उपाय अघाति कर्मका नाशकरि शुद्धसिद्धपदको पावै। ऐसे उपदेशका तो निमित्त बनै अर अपना पुरुषार्थ करे, तो कर्मका नाश होय। बहुरि जब कर्मका उदय तीव्र होय, तब पुरुषार्थ न होय सके है। ऊपरले गुणस्थाननित भी गिर जाय है। तहाँ तो जैसा होनहार होय तैसा ही होप। परन्तु जहाँ मन्द उदय होय अर पुरुषार्थ झेय सके, तहों तो प्रमावी न होना-सावधान होय अपना कार्य करना। जैसे कोऊ पुरुष नदीका प्रवाहविषे पड्या बहै है, तहाँ पानीका जोर होय तब तो वाका पुरुषार्थ किछू नाहीं, उपदेश भी कार्यकारी नाहीं। और पानीका जोर थोरा होय, तब जो पुरुषार्थकरि निकसै तो निकसि आवै, तिसहीको निकसनेकी शिक्षा दीजिए है। अर न निकसै तो होले-होले बहै, पीछे पानीका जोर भए ब्रह्मा चल्या जाय। तैसे जीव संसारविष अम है, तहाँ कर्मनिका तीव्र उदय होय तब तो वाका पुरुषार्थ किछू नाही, उपदेश भी कार्यकारी नाहीं । अर कर्मका मन्द उदय होय, तब पुरुषार्थकरि मोक्षमार्गविषे प्रवर्ते तो मोक्ष पावै; तिसहीको मोक्षमार्ग का उपदेश दीजिए है। अर मोक्षमार्गविष न प्रवर्स तो किथित विशुद्धता पाय पीछे तीव्र उदय आएं निगोदादि पर्यायको पावै। ताते अवसर चूकना योग्य नाहीं। अब सर्व प्रकार अवसर आया है, ऐसा अवसर पावना कठिन है।तात श्रीगुरु दयालु होय मोक्षमार्गको उपदेशै, तिसविषे भव्य जीवनिको प्रवृत्ति करनी। अब मोक्षमार्ग का स्वरूप कहिए
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy