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________________ सातवाँ अधिकार-२०३ यहाँ प्रश्न- जो सम्यग्दृष्टी भी तो प्रशस्तरागका उपाय राखै है। ताका उत्तर यहु- जैसे काहूकै बहुत दंड होता था, सो वह थोरा दंड देनेका उपाय राखै है अर योरा दंड दिए हर्ष भी मानै है परन्तु श्रद्धानविषै दंड देना अनिष्ट ही मान है। तैसे सम्यग्दृष्टीकै पापरूप बहुत कषाय होता था, सो यहु पुण्यरूप थोरा कषाय करने का उपाय राखै है। अर थोरा कषाय भए हर्ष भी मानै है परन्तु श्रद्धान विषै कषाय को हेय ही माने है। बहुरि जैसे कोऊ कमाईका कारण जानि व्यापारादिकका उपाय राखै है, उपाय बनि आए हर्ष मान है तैसे द्रव्यलिंगी मोक्षका कारण जानि प्रशस्त रागका उपाय राखै है, उपाय बनिआए हर्ष माने है। ऐसे प्रशस्तरागका उपायविषै वा हर्षविष समानता होते भी सम्यग्दृष्टीकै तो दण्डसमान, मिथ्यादृष्टिकै व्यापारसमान श्रद्धान पाईए है। ता” अभिप्रायविर्ष विशेष भया। बहुरि याकै परीषह तपश्चरणादिक के निमित्त दुःख होय, ताका इलाज तो न करै है परन्तु दुःख वेदै है। सो दुःखका वेदना कषाय ही है। जहाँ वीतरागता हो है, तहाँ तो जैसे अन्य ज्ञेयको जानै है तैसे ही दुःखका कारण बने तानै है। मो. ऐसी दाना पानी नही है । सहुनि उनको सहै है, सो भी कषायका अभिप्रायरूप विचारतें सहै है। सो विचार ऐसा ही है- जो परवशपने नरकादिगतिविषै बहुत दुःख सहे, ये परीषहादिका दुःख तो थोरा है। याको स्ववश सहे स्वर्ग मोक्षसुखकी प्राप्ति हो है। जो इनको न सहिए अर विषयसुख सेइए तो नरकादिककी प्राप्ति होसी, तहाँ बहुत दुःख होगा। इत्यादि विचारविर्ष परीषहनिविषै अनिष्टबुद्धि रहै है। केवल नरकादिकके भयते वा सुखके लोभते तिनको सहै है। सो ए सर्व कषायभाव ही हैं। बहुरि ऐसा विचार हो है-जे कर्म बाँधे थे, ते भोगे बिना छूटते नाही, तातै मोको सहने आए। सो ऐसे विचारतें कर्मफलचेतना रूप प्रवत्र्ते है। बहरि पर्यायदृष्टितै जे परीषहादिकरूप अवस्था हो है, ताको आपके भई माने है। द्रव्यदृष्टितें अपनी वा शरीरादिककी अवस्थाको भिन्न न पहिचान है। ऐसे ही नाना प्रकार व्यवहार विचारतें परीषहादिक सहै है। बहुरि याने राज्यादि विषयसामग्रीका त्याग किया है वा इष्ट भोजनादिकका त्याग किया करै है। सो जैसे कोऊ दाहज्वरवाला वायु होनेके भयत शीतलवस्तु सेवनका त्याग करै है परन्तु यावत् शीतल वस्तुका सेवन रुचे तावत् वाकै दाहका अभाव न कहिए । तैसे राग सहित जीव नरकादिके भयतै विषयसेवनका त्याग कर है परन्तु यावत् विषयसेवन रुचै तावत् रागका अभाव न कहिए। बहुरि जैसे अमृत का आस्वादी देवको अन्य भोजन स्वयमेव न रुचै, तैसे स्वरसके आस्वादकरि विषयसेवनकी रुचि याकै न हो है। या प्रकार फलादिक की अपेक्षा परीषह सहनादिको सुखका कारण जानै है अर विषयसेवनादिको दुःखका कारण जाने है। बहुरि तत्कालविषै परीषह सहनादिकतै दुःख होना माने है, विषयसेवनादिकतै सुख माने है। बहुरि जिनसे सुख दुःख होना मानिए, तिनविषै इष्ट अनिष्ट बुद्धित रागद्वेष रूप अभिप्रायका अभाव होय नाहीं। बहुरि जहाँ रागद्वेष है, तहाँ चारित्र होय नाहीं। तातै यहु द्रव्यलिंगी विषयसेवन छोरि तपश्चरणादि करै है। तथापि असंयमी ही है। सिद्धांतविष असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टीत भी याको हीन कह्या है। जात उनकै चौथा पाँचवाँ गुणस्थान है, याकै पहला ही गुणस्थान है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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