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________________ --.-.-..-.. .. सातवाँ अधिकार-१६६ ..-...-- - बहुरि वह कहै है- जो कामादिक वा क्षुधादिक मिटावनेको अशुभरूप प्रवृत्ति तो भए बिना रहती नाहीं अर शुभप्रवृत्ति चाहिकरि करनी पर है, ज्ञानीकै चाह चाहिए नाहीं; तातै शुभका उद्यम नाहीं करना। ताका उत्तर- शुभप्रवृत्तिविषै उपयोग लागनेकरि वा ताके निमित्तः विरागता बधनेकरि कामादिक हीन हो हैं अर क्षुधादिकविषै भी संक्लेश थोरा हो. है। तातै शुभोपयोगका अभ्यास करना। उद्यम किए भी जो कामादिक वा क्षुधादिक पीडै हैं तो ताकै अर्थि जैसे थोरा पाप लागै सो करना। बहुरि शुभोपयोगको छोरि निशंक पापरूप प्रवर्त्तना तो युक्त नाहीं। बहुरि तू कहै है- ज्ञानीकै चाहि नाही अर शुभोपयोग चाहि किए हो है सो जैसे पुरुष किंचिन्मात्र भी अपना धन दिया चाहै नाहीं परन्तु जहाँ बहुत द्रव्य जाता जाने, तहाँ चाहिकरि स्तोक द्रव्य देनेका उपाय करै है। तैसे ज्ञानी किंचिन्मात्र भी कषायरूप कार्य किया चाहै नाहीं परन्तु जहाँ बहुत कषायरूप अशुभ कार्य होता जानै तहाँ चाहिकरि स्तोक कषायरूप शुभ कार्य करनेका उद्यम करै है। ऐसे यह बात सिद्ध मई-जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने, तहाँ तो शुभ कार्यका निषेध ही है अर जहाँ अशुभोपयोग होता जानै, तहाँ शुभको उपायकार अंगीकार करना युक्त है। या प्रकार अनेक व्यवहारकार्यको उथापि स्वच्छन्दपनाको स्थापै है, ताका निषेध किया। अब तिस ही केवल निश्चयावलम्बी जीयकी प्रवृत्ति दिखाइए है एक शुद्धात्माको जाने झानी हो है, अन्य किछू चाहिए नाहीं। ऐसा जानि कबहूं एकांत तिष्ठिकरि ध्यानि मुद्रा पारि मैं सर्वकर्म उपाधिरहित सिख समान आत्मा हूँ इत्यादि विचारकरि सन्तुष्ट हो है। सो ए विशेषण कैसे संभवै, ऐसा विचार नाहीं। अथवा अचल अखंड अनौपम्यादि विशेषण करि आत्माको ध्यावै है, सो ए विशेषण अन्य द्रव्यनिविषै भी सम्भव है। बहुरि ए विशेषण किस अपेक्षा है, सो विचार नाहीं । बहुरि कदाचित् सूता बैट्या जिस तिस अवस्थाविषै ऐसा विचार राखि आपको ज्ञानी मानै है। बहुरि ज्ञानी के आस्रव बन्ध नाहीं ऐसा आगमविषे कह्या है तातें कदाचित् विषयकषायरूप हो है। तहाँ बंध होनेका भय नाहीं है, स्वच्छन्द भया रागादिरूप प्रवत्र्त है। सो आपा-परको जाननेका तो चिह्न वैराग्यभाव है सो समयसारविषै कह्या है “सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः।" याका अर्थ-यहु सम्यग्दृष्टीकै निश्चयसों ज्ञानवैराग्य शक्ति होय । बहुरि कह्या है सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु। आलम्बन्ता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्यरिक्ताः।।१३७।। १. सम्यग्दृष्टेभवति नियतं ज्ञान - वैराग्यशक्तिः, एवं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माजात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च, स्वस्मिन्नास्ते घिरमति परात्सर्वतो रागयोगात ।। निर्जरा. कलश १३६।।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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