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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - १६८ बहुरि वह कहै है- न जानिए कैसा उदय आवे, पीछे प्रतिज्ञाभंग होय तो महापाप लागे । तातें प्रारब्ध अनुसारि कार्य बने सो बनो, प्रतिज्ञाका विकल्प न करना । ताका समाधान प्रतिज्ञा ग्रहण करते जाका निर्वाह होता न जानै, तिस प्रतिज्ञाको तो करे नाहीं । प्रतिज्ञा लेते ही यहु अभिप्राय रहे, प्रयोजन पड़े छोड़ि दूंगा, तो वह प्रतिज्ञा कौन कार्यकारी भई । अर प्रतिज्ञा ग्रहण करतैं तो यहु परिणाम है, मरणांत भए भी न छोडूंगा तो ऐसी प्रतिज्ञा करनी युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किए अविरत सम्बन्धी बंध मिटै नाहीं। बहुरि आगामी उदयका भयकरि प्रतिज्ञा न लीजिए सो उदयको विचारे सर्व ही कर्त्तव्यका नाश होय । जैसे आपको पचता जाने, तितना भोजन करें, कदाचित् काहूकै भोजन अजीर्ण भया होय तो तिस भयतें भोजन करना छांडै तो मरण ही होय । तैसे आपके निर्वाह होता जाने तितनी प्रतिज्ञा करे, कदाचित् काहूकै प्रतिज्ञातें भ्रष्टपना भया होय, तो तिस भय प्रतिज्ञा करनी छांडै तो असंयम ही होय । तातै बने सो प्रतिज्ञा लेनी युक्त है। बहुरि प्रारब्ध अनुसारि तो कार्य बने ही है, तू उद्यमी होय भोजनादि काहेको करे है। जो तहाँ उद्यम करे है, तो त्याग करने का भी उधम करना युक्त ही है। जब प्रतिमावत् तेरी दशा होय जायगी, तब हम प्रारब्ध ही मानेंगे, तेरा कर्तव्य न मानेंगे। तार्तें काहेको स्वच्छन्द होनेकी युक्ति बनाये है। बनै सो प्रतिज्ञाकरि व्रत धारना योग्य ही है। शुभोपयोग सर्वथा हेय नहीं है बहुरि वह पूजनादि कार्यको शुभात्रय जानि हेय माने है सो यहु सत्य ही है । परन्तु जो इनि कार्यनिको छोरि शुद्धोपयोगरूप होय तो भले ही है अर विषय कषायरूप अशुभरूप प्रवर्ते तो अपना बुरा ही किया । शुभोर्पयोग स्वर्गादि होय वा भली वासनात या भला निमित्ततें कर्मका स्थितिअनुभाग घटि जाय तो सम्यक्त्वादिककी भी प्राप्ति होय जाय। बहुरि अशुभोपयोग नरक निगोदादि होय वा बुरी वासना वा बुरा निमित्ततें कर्मका स्थिति अनुभाग बधि जाय, तो सम्यक्त्वादिक महादुर्लभ होय जाय । बहुरि शुभोपयोग होतें कषाय मंद हो है, अशुभोपयोगहोतें तीव्र हो है। सो मंदकषायका कार्य छोरि तीव्रकषाय का कार्य करना तो ऐसा है, जैसे कड़वी वस्तु न खानी अर विष खाना । सो यहु अज्ञानता है । 1 बहुरि वह कहे है- शास्त्र विषै शुभ अशुभको समान कया है, तार्ते हमको तो विशेष जानना युक्त नाहीं । ताका समाधान - जे जीव शुभोपयोगको मोक्षका कारण मानि उपादेय माने हैं, शुद्धोपयोगको नहीं पहिचान हैं, तिनको शुभ अशुभ दोऊनिको अशुद्धताकी अपेक्षा वा बंधकारणकी अपेक्षा समान दिखाए हैं। बहुरि शुभ अशुभनिका परस्पर विचार कीजिए, तो शुभ भावनि विषै कषायमंद हो है, तातें बंध हीन हो है। अशुभ भावनिविषै कषाय तीव्र हो है, तातैं बंध बहुत हो है । ऐसे विचार किए अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्तविषै शुभको भला भी कहिए है। जैसे रोग तो धोरा वा बहुत बुरा ही है परन्तु बहुत रोगकी अपेक्षा थोरा रोगको भला भी कहिए है । तातै शुद्धोपयोग नाहीं होय, तब अशुभतें छूटि शुभविषे प्रवर्त्तना युक्त है। शुभको छोरि अशुभविषे प्रवर्त्तना युक्त नाहीं ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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