SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवाँ अधिकार-१७ परणति चाहिए। संसारीनिकै इष्ट अनिष्ट सामग्रीतें रागद्वेष हो है, याकै रागद्वेष न चाहिए। तहाँ राग छोड़नेके अर्थि इष्ट सामग्री भोजनादिकका त्यागी हो है अर द्वेष छोड़नेके अर्थि अनिष्ट सामग्री अनशनादिक ताका अंगीकार करै है। स्वाधीनपने ऐसा साधन होय तो पराधीन इष्ट अनिष्ट सामग्री मिले भी राग द्वेष न होय। सो चाहिए तो ऐसे अर तेरे अनशनादित द्वेष भया, ताक् ताको क्लेश ठहराया। जब यहु क्लेश भया, तब भोजन करना सुख स्वयमेव ठहत्या, तहाँ राग आया; तो ऐसी परिणति तो संसारीनिकै पाईएही है, तैं मोक्षमार्गी होय कहा किया। बहुरि जो तू कहेगा, केई सम्यग्दृष्टी भी तपश्चरण नाहीं करै हैं। ताका उत्तर- यहु कारण विशेषर्ते तप न होय सकै है परन्तु श्रद्धानविषै तो तपको भला जाने हैं। ताके साधनका उद्यम राखै हैं। तेरे तो श्रद्धान यहु है, तप करना क्लेश है। बहुरि तपका तेरे उद्यम नाही, तातै तेरे सम्यग्दृष्टि कैसे होय? बहुरि वह कहै है- शास्त्रविषै ऐसा कया है तब आदिका क्लेश करै है तो करो, ज्ञान बिना सिद्धि नाहीं। ताका उत्तर- यहु जे जीव तत्त्वज्ञानते तो पराङ्मुख हैं, तपहीतैं मोक्ष माने हैं, तिनको रेसा उपदेश दिया है, तत्त्वज्ञान बिना केवल तपहीत मोक्षमार्ग न होय। बहुरि तत्त्वज्ञान भए रागादिक मेटने के अर्थि तपकरनेका तो निषेध है नाहीं। जो निषेध होय तो गणधरादिक तप काहेको करैं। तातें अपनी शक्ति अनुसारि तप करना योग्य है । बहुरि वह व्रतादिकको बंधन माने है। सा स्वच्छन्दवृत्ति तो अज्ञान-अवस्थाही विर्षे थी, ज्ञान पाए तो परिणतिको रोकै ही है। बहुरि तिस परिणति रोकने के अर्थि बाह्य हिंसादिक कारणनिका त्यागी अवश्य भया चाहिए। बहुरि वह कहै है- हमारे परिणाम तो शुद्ध हैं, बाह्य त्याग न किया तो न किया। ताका उत्तर- जे ए हिंसादि कार्य तेरे परिणाम बिना स्वयमेव होते होंय, तो हम ऐसे नानैं । बहुरि जो तू अपना परिणामकरि कार्य करै, तहाँ तेरे परिणाम शुद्ध कैसे कहिए। विषयसेवनादि क्रिया वा प्रमादरूप गमनादि क्रिया परिणाम बिना कैसे होय। सो क्रिया तो आप उद्यमी होय तू करै अर वहाँ हिंसादिक होय ताको तू गिनै नाही, परिणाम शुद्ध मान। सो ऐसो मानि” तेरे परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे। प्रतिज्ञा न लेने का निषेध बहुरि वह कहै है- परिणामनिको रोकिए बाह्य हिंसादिक भी घटाईए; परन्तु प्रतिज्ञा करने में बन्धन हो है, तातै प्रतिज्ञारूप व्रत नाहीं अंगीकार करना। ताका समाधान- जिस कार्य करनेकी आशा रहै है, ताकी प्रतिज्ञा न लीजिए है। अर आशा रहै तिसत राग रहे है। तिस रागभावः बिना कार्य किए भी अविरतिते कर्मका बन्ध हुवा करै। तातें प्रतिज्ञा अवश्य करनी युक्त है। अर कार्य करनेका बंधन भए बिना परिणाम कैसे रुकेंगे, प्रयोजन पड़े तद्रूप परिणाम होय ही होय वा बिना प्रयोजन पड़े ताकी आशा रहै। तातै प्रतिज्ञा करनी युक्त है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy