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________________ दूसरा अधिकार-३७ उदयकै ऐसाही सम्बन्ध है। जब सातावेदनीयका निपजाया बाह्य कारण मिलै तब तो सुख मानने रूप पोहकर्मका उदय होय अर जब असातावेदनीयका निपजाया बाह्यकारण मिले तब दुःख मानने रूप मोहकर्मका उदय होय । बहुरि एक ही कारण काहूको सुखका, काहूको दुःख का कारण हो है। जैसे काहूकै सातावेदनीयका उदय होः मिल्या जैसा वस्त्र सुखका कारण हो है तैसा ही यस्त्र काहूको असातावेदनीयका उदय होते मित्या सो दुःखका कारण हो है। तातें बाल वस्तु सुख-दुःख का निमित्त मात्र हो है। सुख दुःख हो है सो मोहके निमित्ततै हो है। निर्मोही मुनिनके अनेक ऋद्धि आदि परीसह आदि कारण मिलै तो भी सुख दुःख न उपजे। मोही जीवकै कारण मिले वा बिना कारण मिले भी अपने संकल्प ही तें सुख दुःख हुआ ही करे है। तहाँ भी तोद्रमाहीके जिस कारणको मिले तीव्र सुख दुःख होय तिसही कारणको मिले मंदमोहीके मंद सुख दुःख होय । तातें सुख-दुःख का मूल बलवान कारण मोहका उदय है।अन्य वस्तु हैं सो बलवान कारण नाहीं। परन्तु अन्य वस्तुकै अर मोही जीवके परिणामनिकै निमित्तनैमित्तिककी मुख्यता पाइए है। ताकरि मोहीजीव अन्य वस्तुहीको सुख-दुःख का कारण माने है। ऐसे वेदनीयकार सुखदुःखका कारण निपजे है। बहुरि आयुकर्म के उदयकरि मनुष्यादि पर्यायनिकी स्थिति रहे है। यावत् आयुका उदय रहै तावत् अनेक रोगादिक कारण मिलो, शरीरस्यों सम्बन्ध न छूटे। बहुरि जब आयुका उदय न होय तब अनेक उपाय किये भी शरीरस्यों सम्बन्ध रहै नाही, तिसही काल आत्मा अर शरीर जुदा होय । इस संसारविर्षे जन्म, जीवन, मरण का कारण आयुकर्म ही है। जय नवीन आयुका उदय होय तब नवीनपर्यायविषै जन्म हो है। बहुरि यावत् आयुका उदय रहे तावत् तिस पर्यायरूप प्राणनिके धारणतै जीवना हो है। बहुरि आयुका क्षय होय तब तिस पयांवरूप प्राण छूटनैते मरण हो है। सहज ही ऐसा आयुकर्म का निमित्त है। और कोई उपजावनहारा, क्षपावनहारा, रक्षाकरनेहारा है नाहीं, ऐसा निश्चय करना। बहुरि जैसे नदीन वस्त्र पहरे कितेक काल पहरे रहै, पीछे ताईं छोड़ि अन्य वस्त्र पहरै तैसे जीव नवीन शरीर थरै किसेककाल धरै रहै, पीछे ताकू छोड़ि अन्य शरीर धरै है। तातै शरीरसम्बन्ध अपेक्षा जन्मादिक हैं। जीव जन्मादिरहित नित्य ही है तथापि मोही जीवकै अतीत अनागतका विचार नाहीं । तातें पाया पर्याय मात्र ही अपना अस्तित्व मानि पर्याय सम्बन्धी कार्यनिविणे ही तत्पर होय रया है। ऐसे आयुकरि पर्याय की स्थिति जाननी। बहुरि नामकर्मकरि यह जीव मनुष्यादिगतिनियिर्षे प्राप्त हो है, तिस पर्यायरूप अपनी अवस्था हो है। बहुरि तहाँ सस्थावरादि विशेष निपजे हैं। बहुरि तहाँ एकेन्द्रियादि जातिको धारै है। इस माति कर्मका उदयकै अर मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम के निमित्तनैमित्तिकपना जानना । जैसा क्षयोपशम होय तैसी जाति पावै। बहुरि शरीरनिका सम्बन्थ हो है तहां शरीरके परमाणु अर आत्मा के प्रदेशनि का एक बन्धान हो है अर संकोच विस्ताररूप होय शरीरप्रमाण आत्मा रहे है। बहुरि नोकर्मरूप शरीरविष अंगोपांगादिकका पोग्यस्थान प्रमाण लिये हो है। इसहीकरि स्पर्शन रसना आदि द्रव्यइन्द्रिय निपजे हैं वा हृदय स्थान दिले आठ पांखड़ीका फूल्या कमलके आकार द्रव्य मन हो है। बहुरि तिस शरीरहीविषै आकारादिकका विशेष होना अर वर्णादिकका विशेष होना अर स्थूलसूक्ष्मत्वादिकका होना इत्यादि कार्य निपजे है सो ए शरीररूप परणए
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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