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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१४२ पुत्रादि मरते देखिए है। काहूकै बिना माने भी जीवते देखिए है। तातै शीतला का मानना किछू कार्यकारी नाहीं। ऐसे ही सर्व कुदेवनिका मानना किछू कार्यकारी नाहीं। इहाँ कोऊ कहै- कार्यकारी नाही तो मति हो, किछू तिनके माननेते दिगार भी तो होता नाहीं। ताका उत्तर- जो बिगार न होय, तो हम काहेको निषेध करें। परन्तु एक तो मिथ्यात्वादि दृढ़ होने ते मोक्षमार्ग दुर्लभ होय जाय है, सो यह बड़ा बिगार है। एक पापबंध होनेते आगामी दुःख पाईए है, यहु बिगार है। यहाँ पूछ कि मिथ्यात्वादिमाव तो अतत्त्व श्रद्धानादि भए होय है अर पापबंध खोटे कार्य किए होय हैं, सो तिनके मानने तँ मिथ्यात्वादिक वा पापबंध कैसे होय? ताका- उत्तर- प्रथम तो परद्रव्यनिको इष्ट-अनिष्ट मानना ही मिथ्या है, जा” कोऊ द्रव्य काहूका मित्र शत्रु है नाहीं । बहुरि जो इष्ट अनिष्ट बुद्धि पाइए है, तो ताका कारण पुण्य-पाप है। तातै जैसे पुण्यबंध होय, पापबंध न होय सो करै। बहुरि जो कर्मउदय का भी निश्चय न होय, इष्ट-अनिष्ट के बाह्य कारण तिनके संयोग यियोग का उपाय करै, सो सुदेव के मानने से इष्ट अनिष्ट बुद्धि दूरि होती नाहीं, केवल वृद्धि को प्राप्त हो है। बहुरेि पुण्यबंध भी होता नाही, पापबंध हो है। बहुरि कुदेव काहूको धनादिक देते खोसते देखे नाहीं । तातें ए बाह्य कारण भी नाहीं। इनका मानना किसै अर्थि कीजिए हैं ! जब अत्यन्त भ्रमबुद्धि होय, जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धान ज्ञान का अंश भी न होय अर रागद्वेष की अति तीव्रता होय तब जे कारण नाहीं तिनको भी इष्ट अनिष्ट का कारण मानै । तब कुदेवनिका मानना हो है। ऐसा तीव्र मिध्यात्यादि भाव भए मोक्षमार्ग अति दुर्लभ हो है। कुगुरु का निरूपण और उसके श्रद्धानादिक का निषेध आगे कुगुरु के श्रद्धानादिक को निषेधिए है.. जे जीय विषयकषायादि अधर्मरूप तो परिणमै अर मानादिकतें आपको धर्मात्मा मनावै, धर्मात्मा योग्य नमस्कारादि क्रिया करावै अथवा किंचित् धर्मका कोई अंग धारि बड़े धर्मात्मा कहावै, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया करायै; ऐसे धर्म का आश्रयकरि आपको बड़ा मनावे, ते सर्व कुगुरु जानने । जाते धर्मपद्धतिविषै तो विषयकषायादि छूटे जैसा धर्मको धारै तैसा ही अपना पद मानना योग्य है। कुल अपेक्षा गुरुपनेका निषेध तहाँ केई तो कुलकरि आपको गुरु माने हैं। तिनविषै कई ब्राह्मणादिक तो कहै हैं, हमारा कुल ही ऊँचा है तातें हम सर्वके गुरु हैं। सो उस कुलकी उच्चता तो धर्म साधनतें है। जो उच्च कुलविषै उपजि हीन आचरन करे, तो वाको उच्च कैसे मानिए। जो कुलविष उपजनेहीतै उच्चपना रहै, तो मांसभक्षणादि किए भी वाको उच्च ही मानो सो बनै नाहीं। 'भारत' विषै भी अनेक प्रकार ब्राह्मण कहै हैं। तहाँ “जो
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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