SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छटा अधिकार-१४५ ताका उत्तर-यमके अर्थि देना पुण्य है। यह तो दुःखका भयकरि वा सुखका लोभकरि देहैं, तातै पाप ही है। इत्यादि अनेक प्रकार ज्योतिषी देवनिको पूजै है, सो मिथ्यात्व है। __बहुरि देवी दिहाड़ी आदि हैं, ते केई तो व्यंतरी वा ज्योतिषणी हैं, तिनका अन्यथा स्वरूप मानि पूजनादि करे हैं। केई कल्पित हैं, सो तिनकी कल्पनाकार पूजनादि करै हैं। ऐसे व्यंतरादिकके पूजने का निषेध किया। . यहाँ कोऊ है माल पहाड़ी पद्मावती आदि देवी, यक्ष-यक्षिणी आदि जे जिनमतको अनुसरे हैं, तिनके पूजनादि करने में तो दोष नाहीं। ताका उत्तर-जिनमतविष संयम थारे पूज्यपनो हो है। सो देवनिकै संयम होता ही नाहीं। बहुरि इनको सम्यक्त्वी मानि पूजिए है, सो भवनविकमें सम्यक्त्वकी भी मुख्यता नाहीं। जो सम्यक्त्वकरिही पूजिए तो सर्वार्थसिद्धिके देव, लौकांतिकदेव तिनकोही क्यों न पूजिए। बहुरि कहोगे- इनकै जिनभक्ति विशेष है। सो भक्ति की विशेषता भी सौधर्म इन्द्रके है, वह सम्यग्दृष्टी भी है। वाको छोरि इनको काहेको पूजिए। बहुरि जो कहोगे, जैसे राजाकै प्रतीहारादिक हैं, तैसे, तीर्थंकरकै क्षेत्रपालादिक हैं। सो समवसरणादिविषै इनिका अधिकार नाहीं। यह झूठी मानि है। बहरि जैसे प्रतीहारादिकका मिलाया राजास्यों मिलिए, तैसे ये तीर्थकरको मिलावते नाहीं। वहाँ तो जाकै भक्ति होय सोई तीर्थंकरका दर्शनादिक करो, किछू किसीके आधीन नाहीं। बहुरि देखो अज्ञानता, आयुधादिक लिए रौद्रस्वरूप जिनका, तिनकी गाय-गाय भक्ति कर। सो जिनमतविर्षे भी रौद्ररूप पूज्य भया, तो यह भी अन्यमत ही के समान भया। तीव्र मिथ्यात्वभावकरि जिनमतविषै ऐसी ही विपरीत प्रवृत्तिका मानना हो है। ऐसे क्षेत्रपालादिकको भी पूजना योग्य नाहीं। गौ सादिककी पूजा का निराकरण बहुरि गऊ सादि तिर्यच हैं, ते प्रत्यक्ष ही आपत हीन भारी हैं। इनिका तिरस्कारादिक करि सकिए है। इनकी निंद्यदशा प्रत्यक्ष देखिए है। बहुरि वृक्ष अग्नि जलादिक स्थावर हैं, ते तिर्यचनिहूर्त अत्यन्त हीन अवस्थाको प्राप्त देखिए हैं। बहुरि शस्त्र दवात आदि अचेतन है, सो सर्वशक्तिकरि हीन प्रत्यक्ष भासे हैं; पूज्यपनेका उपचार भी सम्भव नाहीं। तातें इनका पूजना महा मिथ्याभाव है। इनको पूजे प्रत्यक्ष या अनुमानकरि किछू भी फल-प्राप्ति नाही मासै है तातें इनको पूजना योग्य नाहीं। या प्रकार सर्व ही कुदेवनिका पूजना मानना निषेध है। देखो मिथ्यात्व की महिमा, लोकविषै तो आपत नीचेको नमते आपको निंद्य मानै अर मोहित होय रोड़ी पर्वतको पूजता भी निंद्यपनों न माने । बहुरि लोकविषै तो जातै प्रयोजन सिद्ध होता जानै, ताहीकी सेवा कर अर मोहित होय कुदेवनितें मेरा प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा; ऐसा बिना विचारे ही कुदेवनिका सेवन करै। बहुरि कुदेवनिका सेवन करते हजारों विघ्न होय ताको तो गिने नाही अर कोई पुण्यके उदयते इष्ट कार्य होय जाय ताको कहैं, इसके सेवनतें यह कार्य भया। बहुरि कुदेवादिकका सेवन किए बिना जे इष्ट कार्य होय, तिनको तो गिनै नाहीं अर कोई अनिष्ट होय तो कहैं, याका सेवन न किया सातै अनिष्ट भया। इतना नाही विचार है, जो इनिही के आधीन इष्ट - अनिष्ट करना होय, तो जे पूजे तिनके इष्ट होइ, न पूजे तिनके अनिष्ट होय। सो तो दीसता नाहीं। जैसे काहूकै शीतलाको बहुत मान भी
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy