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________________ नवमा अधिकार-२६७ बहुरि प्रश्न-सम्यक्त्वमार्गणा के छह भेद किए हैं, सो कैसे हैं? ताका समाधान-सम्यक्त्व के तो भेद तीन ही हैं। बहुरि सम्यक्त्य का अभावरूप मिथ्यात्व है। दोऊनिका मिश्रभाव सो मिश्र है मगरम का घाव मे समापन है ! ऐगे सम्यक्त्व मार्गणाकरि जीवका विचार किये छह भेद कहे हैं। यहाँ कोई कहै कि सम्यक्त्वते भ्रष्ट होय मिथ्यात्वविषै आया होय, ताको मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहिए। सो यहु असत्य है, जाते अभव्यकै भी तिसका सद्भाव पाइए है। बहुरि मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहना ही अशुद्ध है। जैसे संयममार्गणाविषे असंयम कह्या, 'भव्यमार्गणाविषै अभव्य कह्या, तेसे ही सम्यक्त्वमार्गणा विषै मिथ्यात्व कह्या है। मिथ्यात्व को सम्यक्त्व का भेद न जानना । सम्यक्त्व अपेक्षा विचार करते केई जीवनिकै सम्यक्त्व का अभाव भासै तहाँ मिथ्यात्व पाइए है, ऐसा अर्थ प्रगट करने के अर्थि सम्यक्त्वमार्गणा विषै मिथ्यात्व कह्या है। ऐसे ही सासादन मिश्र भी सम्यक्त्व के भेद नाहीं हैं। सम्यक्त्व के भेद तीन ही हैं, ऐसा जानना। यहाँ कर्म के उपशमादिक ते उपशमादिक सम्यक्त्व कहे सो कर्म का उपशमादिक याका किया होता नाहीं। यह तो तत्त्वश्रद्धान करने का उद्यम करै, तिसके निमित्त स्वयमेव कर्म का उपशमादिक हो है। तब याकै तत्त्वश्रद्धान की प्राप्ति हो है, ऐसा जानना। या प्रकार सम्यक्त्व के भेद जानने। ऐसे सम्यग्दर्शन का स्वरूप कह्या। सम्यग्दर्शन के आठ अंग बहुरि सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे हैं। निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकिरसत्व, अमूढदृष्टित्व, उपवृहण, स्थितीकरण, प्रभावना, यात्सल्य। तहाँ भय का अभाव अथवा तत्त्वनिविषै संशय का अभाव, सो निःशंकितत्व है। बहुरि परद्रव्यादिविषे रागरूप वांछा का अभाव, सो निःकांक्षितत्व है। बहुरि पराव्यादिविर्षे द्वेषरूप ग्लानिका अभाय, सो निर्विचिकित्सत्व है, बहुरि तत्त्वनिविषै वा देवादिकविषै अन्यथा प्रतीतिरूप मोह का अभाव, सो अमूहदृष्टित्व है। बहुरि आत्मधर्म का वा जिनधर्म का बधावना, ताका नाम उपहण है। इस ही अंग का नाम उपगूहन भी कहिए है। तहाँ धर्मात्मा जीवनि का दोष ढांकना ऐसा ताक अर्थ जानना । बहुरि अपने स्वभावविषे वा जिनधर्मविषै आपको वा परको स्थापन करना, सो स्थितीकरण है। बहुरि अपने स्वरूप की वा जिनधर्म की महिमा प्रगट करना, सो प्रभावना है। बहुरि स्वरूपविष वा जिनधर्मविष वा धर्मात्मा जीदनिविष अतिप्रीति भाव, सो वात्सल्य है। ऐसे ए आठ अंग जानने। जैसे मनुष्य शरीर के इस्तपादादिक अंग हैं, तैसे ए सम्यक्त्व के अंग हैं। यहाँ प्रश्न-जो केई सम्यक्त्वी जीवनिकै भी भय इच्छा ग्लानि आदि पाइए है अर केई मिथ्यादृष्टीकै न पाइए है, तातै निःशंकितादिक अंग सम्यक्त्व के कैसे कहो हो ? ताका समाधान- जैसे मनुष्य शरीर के हस्तपादादि अंग कहिए है, तहाँ कोई मनुष्य ऐसा भी होय, जाके हस्तपादादिविषै कोई अंग न होय। तहाँ वाकै मनुष्यशरीर तो कहिए परन्तु तिनि अंगनि बिना वह शोभायमान सकल कार्यकारी न होय। तैसे सन्यक्त्व के निःशंकितादि अंग कहिए है, तहाँ कोई सम्यक्ती ऐसा भी होय, जाकै निःशंकितत्वादिविषै कोई अंग न होय 1 तहाँ वाकै सम्यक्त्व तो कहिए परन्तु तिनि अंगनिबिना
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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