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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६६ तो सासादनविषै न भया । यहाँ उपशमसम्यक्त्व ही का काल है, ऐसा जानता । ऐसे अनन्तानुबंधी चतुष्क की सम्यक्त्व होते अवस्था हो है, तातै सात प्रकृतीनि के उपशमादिकते भी सम्यक्त्व की प्राप्ति कहिए है । विशेष- (१) सासादन भी कथंचित् मिथ्यात्व है यथा सम्यक्त्वचारित्रप्रतिबंधि - अनन्तानुबन्धिउदयोत्पादित-विपरीताभिनिवेशस्य तत्र सद्भावात्भवति मिथ्यादृष्टिः अपि तु मिथ्यात्वकर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते (धवल १/१६५) अर्थ- सम्यग्दर्शन और चारित्र का प्रतिबंध करने वाले अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसीलिए (इस दृष्टि से) द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यात्वी है, किन्तु मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पत्र हुआ विपरीताभिनिवेश वहाँ नहीं पाया जाता है इसलिए (इस दृष्टि से) उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं, किन्तु सासादन सम्यक्त्वी कहते हैं। (२) “सासादन में उपशम सम्यक्त्व का काल है ।" इसका अर्थ कोई यह नहीं समझे कि दूसरे गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व है । क्योंकि दूसरे गुणस्थान वाला णासियसम्मोत्तो (गो. जी. २०, प्रा. पं. सं. १/९, धवल १/१६६) अर्थात् नाशित सम्यक्त्व (जिसका सम्यक्त्व रत्न नष्ट हो चुका ऐसा जीव) कहलाता है। सासादन गुणी असदृष्टि है । (थवल १/१६५) वह उपशम सम्यक्त्व के काल के अन्त में पतिानाशित सम्यक्त्व होकर ही सासादन को प्राप्त होता है; स्थितिमूत उपशम सम्यक्त्व के साथ सासादन में नहीं जाता, यह अभिप्राय है । "सासादन में उपशम सम्यक्त्व का काल है" इसका अभिप्राय यह है कि उपशम सम्यक्त्व काल की अन्तिम ६ आवली की अवधि में कोई जीव परिणाम-हानिवश सम्यक्त्वरत्न को खोकर (ल.ना. पृ. ८३ मुख्तारी) सासादन (नाशित सम्यक्त्व व मिथ्यात्वगुण के अभिमुख) हो सकता है । (जयधवल १२, लब्धिसार गा. ६६ से १०६, धवल ४/३३६-३४३ आदि)' (३) अनन्तानुबन्धी यद्यपि चारित्रमोहनीय ही है तथापि वह स्वक्षेत्र तथा परक्षेत्र में घात करने की शक्ति से युक्त है । थवल में कहा है कि:- अणताणुबंधिणो.....सम्मतचारित्ताणं विरोहिणो । दुविहसत्तिसंजुदत्तादो।....एदेसिं...सिद्धं दसणमोहणीयत्तं चरित्तमोहणीयत्तं च (धवल ६/४२-४३) अर्थगुरूपदेश तथा युक्ति से जाना जाता है कि अनन्तानुबंधी कषायों की शक्ति दो प्रकार की है। इसलिए सम्यक्त्व व चारित्र इन दोनों को धातने वाली दो प्रकार की शक्ति से संयुक्त अनन्तानुबंधी है ।..... इस प्रकार सिद्ध होता है कि अनन्तानुबंथी दर्शनमोहनीय भी है; चारित्र मोहनीय भी है । अर्थात् सम्यक्त्व तथा चारित्र को घातने की शक्ति से संयुक्त है । (धवल ६/४३) इस प्रकार अनन्तानुबन्थी की दोनों शक्तियों को स्वीकार करना चाहिए । १. सासादन सम्यक्त्व का काल जघन्य से एक समय है उत्कृष्ट छह आवली प्रमाणकाल है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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