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________________ नवमा अधिकार - २६५ होय । बहुरि जैसा प्रत्याख्यान की साथि संज्वलन का उदय होय, तैसा केवल संज्वलन का उदय न होय । ता अनन्तानुबंधी के गए किछू कषायनिकी मंदता तो हो है परन्तु ऐसी मन्दता न हो है, जाकरि कोउ चारित्र नाम पावै । जातैं कषायनि के असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं । तिनविषै सर्वत्र पूर्वस्थानतें उत्तरस्थानविषे मंदता पाईए है परन्तु व्यवहारकरि तिन स्थाननिविषै तीन मर्यादा करी आदि के बहुत स्थान तो असंयमरूप कहे, पीछे केतेक देशसंयमरूप कहे, पीछे केतेक सकलसंयमरूप कहे । तिनविषै प्रथम गुणस्थान लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जे कषाय के स्थान हो हैं ते सर्व असंयमही के हो हैं। तातें कषायनिकी मंदता होतें भी चारित्र नाम न पावै है । यद्यपि परमार्थ कषाय का घटना चारित्र का अंश है, तथापि व्यवहारतें जहाँ ऐसा कषायनिका घटना होय, जाकरि श्रावकधर्न वा मुनिधर्म का अंगीकार होय, तहाँ ही चारित्र नाम पाये है। सो असंयमविषै ऐसे कषाय घटै नाहीं, तातैं यहाँ असंयम कहा है । कषायनिका अधिक हीनपना होते भी जैसे प्रमत्तादिगुणस्थाननिविषै सर्वत्र सकलसंयम ही नाम पावै तैसे मिथ्यात्वादि असंयतपर्यंत गुणस्थाननिविषै असंयम नाम पावै है । सर्वत्र असंयम की समानता न जाननी । विशेष- यह ठीक है कि चतुर्थ गुणस्थान में कषाय की एक चौकड़ी का अभाव हो जाता है, अतः इतने अंशों में वहाँ कषायांश तो घटता ही है, पर उसे संयमरूप चारित्र नाम नहीं मिलता है। चारितं णत्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु [गो. जी. १२] इस आर्ष वचन के अनुसार वहाँ चारित्र नहीं होता । षट्खण्डागम में भी चतुर्थगुणस्थान में असंयत भाव को औदयिक ही कहा; क्षायोपशमिक नहीं ( धवल ५ / २११ ) हाँ, चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण चारित्र अवश्य होता है । परन्तु संयमरूप चारित्र वहाँ नहीं होता। लोक में भी संयमरूप चारित्र को ही चारित्र कहा जाता है। तथा आगम में भी संयमरूप चारित्र ही निर्जरा का कारण कहा है (पवल ८/८३, मो. भा. प्र. पृ. ३४७ सातवाँ अधिकार तथा पृ. ३०७ अधिकार ७, धवल ३ / ११६, धवल ६ / २७३, ल. सा. पृ. २७४ रायचन्द्र शास्त्रमाला आदि ) । सूक्ष्म वस्तु रचना में साक्षात् सर्वज्ञरूप ही स्वीकृत, विश्वविद्यानिधि के द्रष्टा, शब्दब्रह्म १०८ भगवद् वीरसेन ( ज थ १६ / १४६ ) कहते हैं कि चारित्र के विषय में अनन्तानुबंधी का कार्य यह है कि वह अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदयप्रवाह को अनन्त (अनन्तसागरकालिक-अपरिमित काल तक उदय वाली) कर देती है। इसलिए चारित्र में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का व्यापार निष्फल नहीं है। [ धवल ६ / ४३ } बहुरि यहाँ प्रश्न जो अनन्तानुबंधी सम्यक्त्व को न घाते है तो याके उदय होर्ते सम्यक्त्व भ्रष्ट होय सासादन गुणस्थान को कैसे पाये है? ताका समाधान - जैसे कोई मनुष्य के मनुष्यपर्याय नाश का कारण तीव्ररोग प्रगट भया होय, ताको मनुष्यपर्याय का छोड़नहारा कहिए। बहुरि मनुष्यपना दूर भए देवादिपर्याय होय, सो तो रोग अवस्थाविषे न भया । इहाँ मनुष्य ही की आयु है । तैसे सम्यक्त्वीके सम्यक्त्व के नाश का कारण अनन्तानुबंधी का उदय प्रगट भया, ताको सम्यक्त्व का विरोधक सासादन कह्या बहुरि सम्यक्त्व का अभाव भए मिथ्यात्व होय सो
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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