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________________ सातवाँ अधिकार- १७१ अब इनको पूछिए है- तुम बाह्य तो शुभ अशुभकार्यनिको घटाया परन्तु उपयोग तो आलम्बन बिना रहता नाहीं, सो तुम्हारा उपयोग कहां रहे है, सो कहो। जो वह कहै - आत्माका चिंतवन करै है, तो शास्त्रादि करि अनेक प्रकार आत्माका विचारको तो तुम विकल्प ठहराया अर कोई विशेषण आत्माका जानने में बहुतकाल लागै नाहीं । बारम्बार एकरूप चितवनविषै छद्मस्थका उपयोग लगता नाहीं । गणधरादिकका भी उपयोग ऐसे न रहि सकै, तातैं वे भी शास्त्रादि कार्यनिविषै प्रवर्ते हैं। तेरा उपयोग गणधरादिकतें भी कैसे शुद्ध भया मानिए । तातैं तेरा कहना प्रमाण नाहीं । I जैसे कोऊ व्यापारादिविषै निरुद्यमी होय टाला जैसे तैसे काल गुमावै, तैसे तू धर्म विषै निरुद्यमी हो प्रमादी यूँही काल गमावै है। कबहूँ किछू चिंतवनसा करै, कबहूँ बातैं बनावे, कबहूँ भोजनादि करे, अपना उपयोग निर्मल करनेको शास्त्राभ्यास तपश्चरण भक्ति आदि कार्यनिविषै प्रवर्त्तता नाहीं सुनासा होय प्रमादी होनेका नाम शुद्धोपयोग ठहराय, तहाँ क्लेश घोरा होनेते जैसे कोई आलसी होय परमा रहने में सुख माने, तैसे आनन्द माने है। अथवा जैसे सुपने विषै आपको राजा मानि सुखी होय, तैसे आपको भ्रमतें सिद्ध समान शुद्ध मानि आप ही आनन्दित हो है । अथवा जैसे कहीं रति मानि सुखी हो है, तैसे किछू विचार करने विषे रति मानि सुखी होय, ताको अनुभवजनित आनंद कहै है । बहुरि जैसे कहीं अरति मानि उदास होय, तैसे व्यापारादिक पुत्रादिकको खेदका कारण जानि तिनतें उदास रहे है, ताको वैराग्य या है। सो ऐसा ज्ञान-वैराग्य तो कषायगर्भित है । जो वीतरागरूप उदासीन दशाविषे निराकुलता होय, सो सांचा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवनिकै चारित्रमोहकी हीनता भए प्रगट हो है । बहुरि वह व्यापारादि क्लेश छोड़ि यथेष्ट भोजनादिकरि सुखी हुवा प्रवत्ते है। आपको तहाँ कषायरहित माने है, सो ऐसे आनन्दरूप भए तो रौद्रध्यान हो है । जहाँ सुख -सामग्री छोड़ि दुख सामग्री का संयोग भए संक्लेश न होय, रागद्वेष न उपजै, तब निःकषाय भाव हो है। ऐसे भ्रमरूप तिनकी प्रवृत्ति पाईए है। या प्रकार जे जीव केवल निश्चयाभास के अवलम्बी हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने। जैसे वेदांती वा सांख्यम्मतवाले जीव केवल शुद्धात्मा श्रद्धानी हैं तैसे ए भी जानने। जाते श्रद्धानकी समानताकरि उनका उपदेश इनको इष्ट लाग है, इनका उपदेश उनको इष्ट लागे है । स्वद्रव्य और परद्रव्य के चिन्तन से निर्जरा और बंध का निषेध बहुरि तिन जीवनिकै ऐसा श्रद्धान है- जो केवल शुद्धात्मा का चिंतवनतें तो संवर निर्जरा हो है वा मुक्तात्माका सुख का अंश तहां प्रगट हो है। बहुरि जीव के गुणस्थानादि अशुद्ध भावनिका वा आप बिना अन्य जीव पुद्गलादिकका चिंतयन किए आस्रव बन्ध हो है । तातें अन्य विचारतें पराङ्मुख रहे हैं। सो यहु भी सत्य श्रद्धान नाहीं जातें शुद्ध स्वद्रव्यका चितवन करो वा अन्य चिंतवन करो; जो वीतरागता लिये भाव होय, तो तहाँ संवर निर्जरा ही है बहुरि जहाँ रागादिरूप भाव होय, तहां आम्रव बंध ही है। जो परद्रव्य के जाननेही आम्रवबन्ध होय तो केवली तो समस्त परद्रव्य को जाने है, तिनकै भी आस्रव बन्ध हो है । बहुरि वह कहै है- जो छद्मस्थके परद्रव्य चिंतवन होत आस्रव बन्ध हो है । सो भी नाहीं, जातै शुक्ल ध्यानविषै भी मुनिनिकै छहों द्रव्यनिका द्रव्यगुण पर्यायका चिंतवन होना निरूपण किया
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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