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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- १७२ है वा अवधिमनःपर्ययादिविषै परद्रव्य के जाननेही की विशेषता हो है। बहुरि चौथा गुणस्थानविषै कोई अपने स्वरूपका चिंतन करे है, ताकै भी आस्रवबन्ध अधिक है वा गुणश्रेणी निर्जरा नाहीं है। पंचम षष्टम गुणस्थानविषै आहार विहारादि क्रिया हो परद्रव्य चितवनतें भी आस्रव बन्ध थोरा हो है वा गुणश्रेणी निर्जरा हुवा करे है। तातैं स्वद्रव्य परद्रव्यका चिंतवनतें निर्जरा बंध नाहीं । रागादिक घंटे निर्जरा है, रागादिक भए बन्ध है। ताको रागादिकके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नाहीं, तार्ते अन्यथा मान है। प्रमाण निपादिका वा दर्शन तहाँ यह पूछे है कि ऐसे है तो निर्निकला अनुभव ज्ञानादिकका भी विकल्प का निषेध किया है, सो कैसे है? ताका उत्तर- जे जीव इनही विकल्पनिविषै लगि रहे हैं, अभेदरूप एक आपको अनुभव नाहीं हैं, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो ए सर्व विकल्प वस्तुका निश्चय करने को कारण हैं। वस्तु का निश्चय भये इनका प्रयोजन किछू रहता नाहीं । तातें इन विकल्पनिको भी छोड़ि अभेदरूप एक आत्मा का अनुभव करना । इनिके विचाररूप विकल्पनि ही विषै फँसि रहना योग्य नाहीं । बहुरि वस्तु का निश्चय भए पीछे ऐसा नाहीं, जो सामान्यरूप स्वद्रव्यहीका चिंतवन रह्या करे। स्वद्रव्यका वा परद्रव्यका सामान्यरूप या विशेषरूप जानना होय परन्तु वीतरागता लिये होय, तिसहीका नाम निर्विकल्प दशा है। तहाँ वह पूछें है- यहाँ तो बहुत विकल्प भए, निर्विकल्प संज्ञा कैसे सम्भवै? ताका उत्तर निर्विचार होने का नाम निर्विकल्प नाहीं है । जातै छद्मस्थ के जानना विचार लिये है। ताका अभाव माने ज्ञानका अभाव होय, तब जड़पना भया सो आत्माकै होता नाहीं । तातैं विचार तो रहे हैं, बहुरि जो कहिए, एक सामान्य का ही विचार रहता है, विशेष का नाहीं । तो सामान्य का विचार तो बहुत काल रहता नाहीं वा विशेष की अपेक्षा बिना सामान्य का स्वरूप भासता नाहीं । बहुरि कहिएआपहीका विचार रहता है पर का नाहीं, तो परविषै पर बुद्धि भए बिना आपविषे निजबुद्धि कैसे आये ? तहाँ वह कहे है, समयसारविषै ऐसा कहा है- भाययेद् भेदविज्ञानमिदमच्छिन्न धारया | तावद्यायत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठितं । । ( कलश १३० - संवर अधिकार ) याका अर्थ - यहु भेदविज्ञान तावत् निरन्तर भावना, यावत् परतें छूटि ज्ञान है सो ज्ञानविषै स्थित होय । तातें भेदविज्ञान छूटे पर का जानना मिटि जाय है। केवल आप ही को आप जान्या करे है । सो यहाँ तो यहु कया है- पूर्वे आपा पर को एक जाने था, पीछे जुदा जानने को भेदविज्ञान को तावत् भावना ही योग्य है, यावत् ज्ञान पर रूप को भिन्न जानि अपने ज्ञानस्वरूप ही विषे निश्चित होय ! पीछे भेद - विज्ञान करने का प्रयोजन रह्या नाहीं । स्वयमेव पर को पररूप, आपको आप रूप जान्या करे है । ऐसा नाहीं, जो परद्रव्य का जानना ही मिट जाय है । तातैं पर द्रव्य का जानना वा स्वद्रव्य का विशेष जानने का नाम विकल्प नाहीं है । तो कैसे है? सो कहिए है- राग-द्वेष के वशर्तें किसी ज्ञेय के जानने
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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