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________________ सातवाँ अधिकार-१७३ विष उपयोग लगावना, किसी ज्ञेय के जानने से छुड़ावना, ऐसे बार-बार उपयोग को प्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाको जाने है, ताको यथार्थ जानै है। अन्य अन्य ज्ञेय के जानने के अर्थि उपयोग को नाही प्रमायै है, तहाँ निर्विकल्पदशा जाननी। यहाँ कोऊ कहै- छद्मस्थ का उपयोग तो नाना ज्ञेय विषै भ्रमै ही प्रमै। तहाँ निर्विकल्पता कैसे सम्भवै है? ताका उत्तर- जेते काल एक जानने सप रहै, तावत् निर्विकल्प नाम पावै। सिद्धान्तविष ध्यान का लक्षण ऐसा ही किया है- “एकाषितानिरोधो ध्यानम्।” एक का मुख्य चिंतवन होय अर अन्य चिंता रुके, ताका नाम ध्यान है। सर्वार्थसिद्धि सूत्र की टीका विषै यहु विशेष कह्या है- जो सर्व चिंता रुकने का नाम ध्यान होय तो अचेतनपनो होय जाय। बहुरि ऐसी भी विवक्षा है जो संतान अपेक्षा नाना ज्ञेय का भी जानना होय । परन्तु यावत् वीतरागता रहे, रागादिककार आप उपयोग को प्रमावे नाही, तावत् निर्विकल्पदशा कतिए है ! बहुरि वह कहै- ऐसे है तो परद्रव्यत छुड़ाय स्वरूपविषै उपयोग लगावने का उपदेश काहेको दिया ताका समाधान- जो शुभ-अशुभ भावनिको कारण पर द्रव्य है, तिनविष उपयोग लगे जिनके रागद्वेष होइ आवै है अर स्वरूपचितवन करे तो रागद्वेष घटै है, ऐसे नीचली अवस्थाबारे जीवनिको पूर्वोक्त उपदेश है। जैसे कोऊ स्त्री विकारभावकार पर घर जाती थी, ताको मनै करी-पर घर मति जाय, घर में बैठि रहो। बहुरि जो स्त्री निर्विकार भावकारे काहूके घर जाय यथायोग्य प्रवते तो किछू दोष है नाहीं । तैसे उपयोगरूप परणति राग-द्वेष भावकार पर द्रव्यनिविष प्रवर्तं थी, ताको मनै करी-परद्रव्यनिविर्ष मति प्रवर्ते, स्वरूपविषे मग्न रहो। बहुरि जो उपयोगरूप परणति वीतरागभावकरि परद्रव्यको जानि यथायोग्य प्रवर्ते, तो किछू दोष है नाही। बहुरि वह कई है- ऐसे है तो महामुनि परिग्रहादिक चिंतवनका त्याग काहेको करे हैं। ताका समाधान- जैसे विकाररहित स्त्री कुशीलके कारण परधरनिका त्याग करै सैसे वीतराग परणति रागद्वेष के कारण परद्रव्यनिका त्याग करै है। बहुरि जे व्यभिचारके कारण नाहीं, ऐसे परघर जाने का त्याग है नाहीं। तैसे जे रागद्वेषको कारण नाहीं, ऐसे परद्रव्य जानने का त्याग है नाहीं। बहुरि यह कहै है- जैसे जो स्त्री प्रयोजन जानि पितादिकके धरि जाय तो जायो, बिना प्रयोजन जिस तिसके घर जाना तो योग्य नाहीं। तैसे परणतिको प्रयोजन जानि सप्ततत्त्वनिका विचार करना, बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नाहीं। ताका समायान- जैसे स्त्री प्रयोजन जानि पितादिक वा मित्रादिकके भी घर जाय तैसे परणति १. "उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्” (तत्त्वार्थसूत्र ६-२७)
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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