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________________ छठा अधिकार-१४५ दसईं ग्यारही प्रतिमा का धारक श्रावकका लिंग अर तीसरा आर्यकानिका रूप यहु स्त्रीनिका लिंग, ऐसे ए तीन लिंग तो श्रद्धानपूर्वक हैं। बहुरि चौथा लिंग सम्यग्दर्शन स्वरूप नाहीं है। भावार्थ-यहु इन तीनलिंग बिना अन्यलिंग को मानै सो श्रद्धानी नाही, मिथ्यादृष्टी है। बहुरि इन भेषीनिविषै केई भेषी अपने भेष की प्रतीति करावने के अर्थि किंचित् धर्म का अंग को भी पाले हैं। जैसे खोटा रुपया चलावने वाला तिस विषै किछू रूपा का भी अंश राखें है, तैसे धर्म का कोऊ अंग दिखाय अपना उच्चपद मनावै हैं। इहाँ को कहै कि जो धर्म साधन किया, ताका तो फल होगा। ताका उत्तर- जैसे उपवास का नाम धराय कणमात्र भी भक्षण करे तो पापी है अर एकंत का (एकासनका) नाम धराय किंचित् ऊन भोजन करै तो भी थर्मात्मा है। तैसे उच्चपदवी का नाम धराय तामें किंचित भी अन्यथा प्रवर्ते, तो महापापी है। अर नीचीपदवी का नाम थराय किछू भी धर्म साधन करे, तो धर्मात्मा है। तातें धर्मसाधन तो जेता बने तेता ही कीजिए, किछू दोष नाहीं। परन्तु ऊँधा यात्मा नाम धराय नीची क्रिया किये महापाप ही हो है। सोई षट्पाहुडविष कुन्दकुन्दाचार्यकरि कह्या है जहजायसवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गहदि अत्येसु। जइ लेइ अप्प - बहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ।।१।। (मूत्र प...) याका अर्थ- मुनि पद है, सो यथाजातरूप सदृश है। जैसा जन्म होते था, तैसा नग्न है। सो वह मुनि अर्थ जे धन वस्त्रादिक वस्तु तिनविष तिलका तुषमात्र भी ग्रहण न करै। बहुरि जो कदाचित् अल्प वा बहुत वस्तु ग्रहै, तो तिसते निगोद जाय । सो इहाँ देखो, गृहस्थपने में बहुत परिग्रह राखि किछू प्रमाण करै तो भी स्वर्गमोक्ष का अधिकारी हो है। अर मुनिपने में किंचित् परिग्रह अंगीकार किये भी निगोद जाने वाला हो है। तातै ऊँया नाम धराय नीची प्रवृत्ति युक्त नाहीं। देखो, हुंडावसर्पिणी कालविप यह कलिकाल प्रवत है। ताका दोषकरि जिनमतविष मुनि का स्वरूप तो ऐसा जहाँ बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह का लगाव नाही, केवल अपने आत्मा को आपो अनुभवते शुभाशुभभावनित उदासीन रहे है अर अब विषय-कषायासक्त जीव मुनिपद धारै, तहाँ सर्वसावन का त्यागी होय पंचमहाव्रतादि अंगीकार करै। बहुरि श्वेत रक्तादि वस्त्रनिको ग्रह वा भोजनादिविषे लोलुपी होय वा अपनी पद्धति बधावने के उद्यमी होय वा केई धनादिक भी राखै वा हिंसादिक करै वा नाना आरम्भ करै। सो स्तोक परिग्रह ग्रहणे का फल निगोद कया है, तो ऐसे पापनिका फल तो अनंत संसार होय ही होय। बहुरि लोकनिकी अज्ञानता देखो, कोई एक छोटी भी प्रतिज्ञा भंग करै, ताको तो पापी कहै अर ऐसी बड़ी प्रतिज्ञाभंग करते देखे बहुरि तिनको गुरु माने, मुनिवत् तिनका सन्मानादि करे। सो शास्त्रविष कृतकारित अनुमोदना का फल कह्या है ताते इनको भी वैसा ही फल लाग है। मुनिपद लेने का तो क्रम यह है- पहलै तत्त्वज्ञान होय, पीछै उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहने की शक्ति होय, तब वह स्वयमेव मुनि भया चाहै। तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार करावै। यह कौन विपरीत जे तत्त्वज्ञानरहित विषयकषायासक्त जीव
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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