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________________ मोक्षमार्ग प्रवाशक--१४४ बहार केई काहूप्रकार का भेषधारने तैं गुरुपनो मान है। सो भेष धारै कौन धर्म भया, जात धर्मात्मा गुरू मानें। तहाँ केई टोपी दे हैं, केई गूदरी राखै हैं, केई चोला पहरे हैं, केई चादर ओढ़े हैं, केई लाल वस्त्र गाये हैं, केई श्वेतवस्व राखे हैं, केई भायां गखै हैं, केई टाट पहरे हैं, केई मृगछाला राखे हैं, केई राख लगावै हैं, इत्यादि अनेक स्वाँग बनाये हैं। सो जो शीत उष्णादिक सहे न जाते थे, लज्जा न छूट थी, तो पागजामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिक-त्याग काहेको किया? उनको छोरि ऐसे स्वाँग बनावने में कौन धर्म का अंग भया। गृहस्थनिको ठिगने के अर्थि ऐसे भेष जानने । जो गृहस्थ सारिखा अपना स्वांग राखै, तो गृहस्थ कैसे ठिगावै । अर याको उनकरि आजीविका वा धनादिक वा मानादिकका प्रयोजन साधना, तातें ऐसे स्वांग बनाई है। जगत् भोला, तिस स्वांगको देखि ठिगाबै अर धर्म भया माने, सो यह भ्रम है। सोई कह्या जह कुवि येस्सारत्तो मुसिज्जमाणो विमण्णए हरिस। सह मिच्छवेसमुसिया मयं पि ण मुणंति धम्म-णिहिं ।।१।। (उपदेश सि. र. ५) याका. अर्थ - जैमे कोई देश्यारपत पुरुष भाटिक को मुसावता हुआ भी हर्ष माने है, तैसे मिथ्याभेषकरि ठिगे गए जीव ते नष्ट होता धर्म धन को नाहीं जाने है। भावार्थ-यहु मिथ्या भेष वाले जीवनिकी शुश्रूषा आदितै अपना धर्म धन नष्ट हो ताका विषाद नाही, मिथ्याधुद्धि से हर्ष करै हैं। तहाँ केई तो मिथ्याशास्त्रनिविर्ष भेष निरूपण किये है तिनको धारै है। सो उन शास्त्रनिका करणहारा पापी सुगम क्रिया कियेते उच्चपद प्ररूपण तें मेरी मानि होइ वा अन्य जीव इस मार्ग विषै बहुत लागै, इस अभिप्रायतें मिथ्या उपदेश दिया। ताकी परम्पराकरि विचार रहित जीव इतना तो विचार नाही, जो सुगम क्रियातें उच्चपद होना बतावै हैं, सो इहाँ किछू दगा है, भ्रमकरि तिनिका कह्या मार्गविषै प्रवते हैं। बहुरि केई शास्त्रनिविषै तो मार्ग कठिन निरूपण किया सो तो सधै नाहीं अर अपना ऊँच नाम धराए बिना लोक माने नाहीं, इस अभिप्राय ते यति मुनि आचार्य उपाध्याय साधु भट्टारक संन्यासी योगी तपस्वी नग्न इत्यादि नाम तो ऊँचा धरादै हैं अर इनिका आचारनिको नाहीं साधि सके हैं तातें इच्छानुसारि नाना भेष बनावै हैं। बहुरि कैई अपनी इच्छा अनुसार ही तो नवीन नाम धरावै हैं। अर इच्छानुसारि ही भेष बनावै हैं। ऐसे अनेक भेष धारने तैं गुरुपनो मानै हैं, सो यहु मिथ्या है। - इहाँ कोऊ पूछे कि भेष तो बहुत प्रकार के दीसे, तिन विष साँचे झूठे की पहचानि कैसे होय ? ताका समाधान- जिन भेषनिविषे विषयकषायका किछू लगाव नाही, ते भेष सांचे हैं। सो सांचे भेष तीन प्रकार हैं, अन्य सर्व भेष मिथ्या हैं। सो ही षट्पाहुविष कुन्दकुन्दाचार्य करि कह्या है एगं जिणस्स एवं विदियं उक्किट्ठ साययाणं सु। अवरद्वियाण तइयं चउत्थं पुण लिंगदसणं णत्थि।। (द.पा. १८) याका अर्थ- एक तो जिनका स्वरूप निग्रंथ दिगम्बर मुनिलिंग अर दूसरा उत्कृष्ट श्रावकनिका रूप
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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