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________________ तीसरा अधिकार-५६ इच्छा करि महाव्याकुल होता था सो अब मोहका अभावतें इच्छा का भी अभाव भया। तातै दुःखका अभाव भया है। बहुरि ज्ञानायरण दर्शनावरण का क्षय होनेते सर्व इन्द्रियनिको सर्वविषयनिका युगपत् ग्रहण भया, तात दुःखका कारण भी दूर भया है सोई दिखाइए है-जैसे नेत्रकरि एक विषयको देख्या चाहै था, अब त्रिकालवी त्रिलोक के सर्व वर्णनिको युगपत देख है। कोऊ बिना देख्या रह्या नाही, जाके देखने की इच्छा उपजै। ऐसे. ही स्पर्शनादिककरि एक एक विषय को ग्रह्या चाहै था, अब त्रिकालवर्ती त्रिलोक के सर्व स्पर्श रस गंध शब्दनिको युगपत ग्रहै है। कोऊ बिना ग्रह्या रह्या नाही, जाके ग्रहण की इच्छा उपजै। इहा कोऊ कहै, शरीरादिक बिना ग्रहण कैसे होइ? - ताका समाधान-इन्द्रियज्ञान होते तो द्रव्यइन्द्रियादि बिना ग्रहण न होता था। अब ऐसा स्वभाघ प्रगट भया जो बिनाही इन्द्रिय ग्रहण हो है। इहाँ कोऊ कहै, जैसे मनकरि स्पर्शादिकको जानिए है तैसे जानना होता होगा। त्यचा जीभ आदि करि ग्रहण हो है तैसे न होता होगा। सो ऐसे नाहीं है। मनकरि तो स्मरणादि होते अस्पष्ट जानना किछु हो है। इहाँ तो स्पर्शरसादिकको जैसे त्वचा जीभ इत्यादि करि स्पर्शे स्वादै संघै देखे सुनै जैसा स्पष्ट जानना हो है तिसत भी अनन्त गुणा स्पष्ट जानना तिनकै हो है। विशेष इतना भया है-वहाँ इन्द्रिय विषयका संयोग होते ही जानना होता था, इहाँ दूर रहे भी वैसा ही जानना हो है। सो यहु शक्तिकी महिमा है। बहुरि मनकारे किछु अतीत अनागतको व अव्यक्तको जान्या चाहै था, अब सर्वही अनादित अनंतकालपर्यन्त जे सर्व पदार्थनिके द्रव्य क्षेत्र काल भाव तिनको युगपत् जानै है। कोऊ बिना जान्या रना नाही, जाके जानने की इच्छा उपजै। ऐसे इन दुःख और दुःखनिके कारण तिनका अभाव जानना। बहुरि मोहके उदयतें मिथ्यात्य वा कषाय भाव होते थे तिनका सर्वथा अभाव भया तातै दुःखका अभाव भया। बहुरि इनके कारणनिका अभाव भया तातै दुःख के कारणका भी अभाव भया। सो कारणका अभाव दिखाइए है। सर्व तत्त्व यथार्थ प्रतिभासै, अतत्त्व श्रद्धानरूप मिथ्यात्व कैसे होइ? कोऊ अनिष्ट रह्या नाही, निंदक स्वयमेव अनिष्ट पावै ही है, आप क्रोध कौनसों करै? सिद्धनितें ऊँचा कोई है नाहीं। इन्द्रादिक आपहीत नमै है इष्ट पाय है? तो कौनसों मान करै? सर्व भवितव्य मासि गया, कोऊ कार्य रह्या नाही, काहूसो प्रयोजन रह्या नाही, काहेका लोभ करै? कोऊ अन्य इष्ट रह्या नाहीं, कौन कारणत हास्य होइ? कोऊ अन्य इष्ट प्रीति करने योग्य है नाहीं, इहाँ कहा रति करै? कोऊ दुःखदायक संयोग रह्या नाही, कहा अरति करै? कोऊ इष्ट अनिष्ट संयोग वियोग होता नाही, काहेका शोक करै? कोऊ अनिष्ट करने वाला कारण रह्या नाहीं, कौनका भय करे? सर्ववस्तु अपने स्वभाव लिए भारी, आपको अनिष्ट नाहीं, कहा जुगुप्सा करें? कामपीड़ा दूर होनेते स्त्री पुरुष उभयसों रमनेका किछु प्रयोजन रह्या नाही, काहेको पुरुष स्त्री नपुंसकवेद रूप भाय होई? ऐसे मोह उपजनेके कारणनिका अभाव जानना । बहरि अंतरायके उदयतें शक्तिहीनपनाकरि पूरण न होती थी, अब ताका अभाव भया, तातै दुःख का अभाव भया। बहुरि अनंत शक्ति प्रगट भई, तातै दुःखके कारणका भी अभाव भया। इहाँ कोऊ कहै, दान लाभ मोग उपभोग तो करते नाही, इनकी शक्ति कैसे प्रगट भई?
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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