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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-६० ताका समाधान-ए कार्य रोगके उपचार थे। जब रोग ही नाही तब उपचार काहेको करै । तातै इन कार्यनिका सद्भाव तो नाहीं । अर इनका रोकनहारा कर्मका अभाव भया, तातै शक्ति प्रगटी कहिए है। जैसे कोऊ (नाही) गमन किया बाहै ताको काहूनै रोक्या था तब दुःखी था। जब बाकै रोकना दूर मया अर जिस कार्यके अर्थि गया चाहै था सो कार्य न रह्या तब गमन भी न किया। तब वाकै गमन न करते भी शक्ति प्रगटी कहिए । तैसे ही इहाँ भी जानना। बहुरि ज्ञानादि की शक्तिरूप अनसवीर्य प्रगट उनके पाइए है। बहुरि अघाति कर्मनि विषै मोहते पाप प्रकृतिनिका उदय होते दुःख मान था, पुण्यप्रकृतिनि का उदय होते सुख माने था, परमार्थत आकुलताकरि सर्व दुःख ही था। अब मोहके नाशते सर्व आकुलता दूर होनेते सर्व दुःखका नाश भया। बहुरि जिन कारणनिकरि दुःख मानै था, ते तो कारण सर्व नष्ट भए। अर जिनकरि किंचित् दुःख दूर होनेते सुख मानै था, सो अब मूलहीमें दुःख रह्या नाहीं। तातै तिन दुःखके उपचारनिका किछु प्रयोजन रह्या नाहीं, जो तिनकार कार्यकी सिद्धि किया याहै। ताकी स्वयमेव ही सिद्धि होय रही है। इसहीका विशेष दिखाइये है वेदनीय विषै जसमा उदयते कुरा के पास काली नि रोग शुधादिक होते थे। अब शरीर ही नाहीं तब कहां होय? अर शरीरकी अनिष्ट अवस्थाको कारण आतापादिक थे सो अब शरीर बिना कौन को कारण होय? अर बाह्य अनिष्ट निमित्त यनै था सो अब इनके अनिष्ट रह्या ही नाहीं। ऐसे दुःखका कारण का तो अभाव भया। बहुरि साताके उदयत किंचित् दुःख मेटनेके कारण औषधि भोजनाविक ये तिनका प्रयोजन रह्या नाहीं। अर इष्ट कार्य पराधीन रह्या नाही, तातै बाह्य भी मित्रादिकको इष्ट मानने का प्रयोजन रह्या नाहीं। इन फरि दुःख मेट्या चाहै था या इष्ट किया चाहै था सो अब सम्पूर्ण दुःख नष्ट भया अर सम्पूर्ण इष्ट पाया । बहुरि आयुके निमित्त” मरण जीवन था तहां मरणकरि दुःख मान था सो अविनाशी पद पाया, तातै दुःख का कारण रह्या नाहीं। बहुरि द्रव्य प्राणनिको घरे कितेक काल जीवनतें सुख मानै था, तहाँ भी नरक पर्याय विषै दुःखकी विशेषताकरि तहाँ जीवना न चाहै था, सो अब इस सिद्धपर्याय विषै द्रव्यप्राण बिना ही अपने चैतन्य प्राणकरि सदाकाल जीवै है अर तहाँ दुःख का लयलेश भी न रहा है। बहरि नामकर्मत अशुभ गति जाति आदि होते दुःख मानै था सो अब तिन सबनिका अभाव भया, दुःख कहाँते होय? अर शुभगति जाति आदि होते किंचित् दुःख दूर होनेते सुख मानै था, सो अब तिन बिना ही सर्व दुःख का नाश अर सर्व सुख का प्रकाश पाइए है। तातै तिनका भी किछु प्रयोजन रह्या नाहीं। बहुरि गोत्र १. शंकाः यदि क्षायिक दान आदि भावों के निमित्त से अभयदानादि कार्य होते हैं तो सिद्धों में भी उनका प्रसंग प्राप्त होता समाधानः यह कोई दोष नहीं क्योंकि इन अभयदान आदि के होने में शरीर नाम कर्म तथा तीर्थकर नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रहती है, परन्तु सिद्धों के शरीर नामकर्म तथा तीर्थकर नामकर्म नहीं होते अतः उनके अभयदानादि नहीं प्राप्त होते। पाकाः फिर सिद्धों के क्षायिक दानादि का सद्भाव कैसे माना जावे? समाधानः जिस प्रकार सिद्धों के केवलज्ञान रूप से अनन्त वीर्य का सद्भाव पाना है, उसी प्रकार परमानन्द के अव्यावाध रूप से ही उनका सिद्धों के सद्भाव है। (सर्वार्षसिद्धि २/४ पृष्ठ १०६ मानपीठ)
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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