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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - १५० हिताहितका विचार करनेवाला तो ज्ञान ही है। सो आपका अभाव को ज्ञान हित कैसे मानै । बहुरि बौद्ध मतविषै दोय प्रमाण मान हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान । सो इनिके सत्यासत्यका निरूपण जैनशास्त्रनितें जानना । बहुरि जो ए दोय ही प्रमाण हैं, तो इनिके शास्त्र अप्रमाण भए, तिनिका निरूपण किस अर्थि किया। प्रत्यक्ष अनुमान तो जीव आप ही करि लेंगे, तुम शा काहे को किए। बहुरि सुगतको देना है सो ताका स्वरूप नग्न वा विक्रियारूप स्थापै है सो विडम्बनारूप है । बहुरि कमंडल रक्तांबर के धारी पूर्वाह्न विषे भोजन करें इत्यादि लिंगरूप बौद्धमत के भिक्षुक हैं सो क्षणिक को भेष धरने का कहा :योजन ? परन्तु महंतता के अर्थि कल्पित निरूपण करना अर भेष धरना हो है। ऐसे बौद्ध हैं ते व्यारि प्रकार हैं- वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, मध्यम तहाँ वैभाषिक तो ज्ञानसहित पदार्थ को माने हैं। सौत्रांतिक प्रत्यक्ष यहु देखिए है, सांई है, परे किछू नाहीं ऐसा माने हैं। योगाचारनिके आचारसहित बुद्धि पाईए है। मध्यम हैं ते पदार्थ का आश्रय बिना ज्ञानही को माने हैं। सो अपनी-अपनी कल्पना करे हैं। विचार किए किछू ठिकानाकी बात नाहीं। ऐसे बौद्धमत का निरूपण किया। चार्वाकमत निराकरण अब चार्वाकमतका स्वरूप कहिये है कोई सर्वज्ञदेव धर्म अधर्म मोक्ष है नाहीं वा पुण्य पाप का फल है नाहीं वा परलोक नाहीं, यह इन्द्रियगोचर जितना है सो ही लोक है; ऐसे चार्वाक कहे हैं सो तहाँ वाको पूछिए है सर्वज्ञदेव इस कालक्षेत्र विषै नाहीं कि सर्वदा सर्वत्र नाहीं । इस कालक्षेत्रविषे तो हम भी नाहीं माने हैं। अर सर्वकालक्षेत्रविष नाहीं ऐसा सर्वन बिना जानना किसकै भया । जो सर्व क्षेत्रकालकी जानै सो ही सर्वज्ञ अर न जाने है तो निषेध कैसे करे है। बहुरि धर्म अधर्म लोकविषे प्रसिद्ध हैं। जो ए कल्पित होय तो सर्वजन सुप्रसिद्ध कैसे होय । बहुरि धर्म अधर्मरूप परणति होती देखिए है, ताकरि वर्तमान ही में सुखी दुःखी हो है । इनिको कैसे न मानिए । अर मोक्षका होना अनुमानविषै आवै है । क्रोधादिक दोष काहूकै हीन है, काहूकै अधिक है तो जानिए है काहू इनकी नास्ति भी होती होसी । अर ज्ञानादि गुण काहूकै हीन काहूकै अधिक भासे है, तातें जानिए है काहूकै सम्पूर्ण भी होते होसी । ऐसे जाकै समस्तदोषकी हानि गुणनिकी प्राप्ति होय सोई मोक्ष अवस्था है। बहुरि पुण्य-पाप का फल भी देखिए है। कौऊ उद्यम करे तो भी दरिद्री रहे, कोऊकै स्वयमेव लक्ष्मी होय । कोऊ शरीरका यत्न करे तो भी रोगी रहे, काहूके बिना ही यत्न निरोगता रहे। इत्यादि प्रत्यक्ष देखिए है सो याका कारण कोई तो होगा। जो याका कारण सोई पुण्य पाप है। बहुरि परलोकभी प्रत्यक्ष अनुमानतें भासै है । व्यंतरादिक हैं ते अवलोकिए हैं। मैं अमुक था सो देव भया हूँ। बहुरि तू कहेगा यहु तो पवन है सो हम तो 'मैं हूँ' इत्यादि चेतनाभाव जाकै आश्रय पाईए ताहीको आत्मा कहै है सो तू वाका नाम पवन कहिं परन्तु पवन तो भाँति आदिकरि अटके है, आत्मा मूंद्या ( बंद) हुआ भी अटके नाहीं, ताते पवन कैसे मानिए है। बहुरि जितना इन्द्रियगोचर है तितना ही लोक कहै है। सो तेरी इन्द्रियगोचर तो थोरेसे भी योजन दूरिवर्ती क्षेत्र अर थोरासा अतीत अनागत काल ऐसा क्षेत्र कालवर्ती भी पदार्थ नाहीं होय सकै ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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