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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२६० ताका समाधान- कथन तो नाना प्रकार होय अर प्रयोजन एकहीको पोषै तो कोई दोष है नाहीं। अर कहीं कोई प्रयोजन पोषै, कहीं कोई प्रयोजन पोषै तो दोष ही है। सो जिनमतविषै तो एक प्रयोजन रागादि मेटने का है, सो कहीं बहुत रागादि छुड़ाय थोड़ा रागादि करावनेका प्रयोजन पोष्या है, कहीं सर्व रागादि मिटावने का प्रयोजन पोष्या है परन्तु रागादि बधावने का प्रयोजन कहीं भी नाहीं तातै जिनमत का कथन सर्व निर्दोष है। अर अन्यमतविषै कहीं रागादि मिटावने का प्रयोजन लिए कथन करै, कहीं रागादि बधावने का प्रयोजन लिए कथन करे, ऐसे ही और भी आयोजन की विनता तिः कथन करै हैं तातै अन्यमतका कथन सदोष है। लोकविषै भी एक प्रयोजन को पोषतै नाना वचन कहै, ताको प्रमाणीक कहिए है अर प्रयोजन और-और पोषती बातें करै, ताको बावला कहिए है। बहुरि जिनमतविषै नाना प्रकार कथन है सो जुदीजुदी अपेक्षा लिए है, तहाँ दोष नाहीं। अन्यमतविष एक ही अपेक्षा लिए अन्य-अन्य कथन करै तहाँ दोष है। जैसे जिनदेवके वीतरागभाव है अर समवसरणादि विभूति भी पाइए है, तहाँ विरोध नाहीं । समवसरणादि विभूति की रचना इन्द्रादिक करै हैं, इनकै तिसविषै रागादिक नाहीं, तातें दोऊ बात सम्भवै हैं। अर अन्यमतविष ईश्वरको साक्षीभूत वीतराग भी कहै अर तिसहीकरि किए काम-क्रोधादि भाव निरूपण करे, सो एक आत्मा ही के वीतरागपनो अर काम-क्रोधादि भाव कैसे सम्भवै? ऐसे ही अन्यत्र जानना। बहुरि कालदोषः जिनमतविपै एकही प्रकारकरि कोई कथन विरुद्ध लिख्या है। सो यहु तुच्छ बुद्धीनिकी भूलि है, किछू मतविणे दोष नाहीं। सो भी जिनमत का अतिशय इतना है कि प्रमाणविरुद्ध कथन कोई कर सके नाहीं। कहीं सौरीपुरविषै कहीं द्वारावतीविषै नेमिनाथस्वामीका जन्म लिख्या है, सो कटै ही होहु परन्तु नगरविषे जन्म होना प्रमाणविरुद्ध नाहीं। अब भी होता दीसे है। आगमाभ्यास का उपदेश __बहुरि अन्यमतविषै सर्वज्ञादिक यथार्थ ज्ञानी के किये ग्रन्थ बतावै, बहुरि तिनिविषै परस्पर विरुद्ध भासै । कहीं तो बालब्रह्मचारी की प्रशंसा करै, कहीं कहैं "पुत्र बिना गति ही होय नाही" सो दोऊ साँचा कैसे होय। सो ऐसे कथन तहाँ बहुत पाइए हैं। बहुरि प्रमाणविरुद्ध कथन तिनविष पाइए है। जैसे वीर्य मुखविर्ष पड़नेरौं मछलीके पुत्र हुवो, सो ऐसे अबार काहूकै होता दीसे नाही, अनुमानते मिले नाहीं। सो ऐसे भी कथन बहुत पाइए हैं। सो यहाँ सर्वज्ञादिक की भूलि मानिए सो तो वे कैसे भूलै अर विरुद्ध कथन मानने में आवे नाहीं, तातै तिनके मतविषै दोष टहराइए है। ऐसा जानि एक जिनमत ही का उपदेश ग्रहण करने योग्य है। तहाँ प्रथमानुयोगादिक का अभ्यास करना। तहाँ पहिले याका अभ्यास करना, पीछे याका करना, ऐसा नियम नाहीं।' अपने परिणामनिकी अवस्था देखि जिसके अभ्यासतें अपने धर्मविषै प्रवृत्ति होय, तिसही का अभ्यास करना। अथवा कदाचित् किसी शास्त्र का अभ्यास करै, कदाचित् किसी शास्त्र का अभ्यास १. पूजा के अन्त में बोले जाने वाले शान्तिपाठ में चारों अनुयोगों का क्रम इस तरह बताया है- प्रथम करणं चरणं द्रव्ये नमः यह क्रमपद परम्परा से चल रहा है और यह क्रम स्वाध्याय के लिए अनुकरणीय है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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