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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२ अरहन्तों का स्वरूप तही अशा अरहंतनिका स्वरूप विचारिये है - जे गृहस्थपनो त्यागि मुनिधर्म अंगीकार करि निजस्वभावसाधनते च्यारि धातिकमनिकौं खिपाय अनन्त चतुष्टय विराजमान भये। तहाँ अनन्तज्ञानकरि ती उग्पने अनन्त गुणपाय सहित समस्त जीवादि द्रव्यनिको युगपट विशेषपने करि प्रत्यक्ष जानै है। अनन्तदर्शनकरि तिनिकों सामान्यपने अबलोकै है। अनन्तवीर्यकरि ऐतः । पर्युक्त समयको पार है। अनन्तसुखकार निराकुल परमानन्दको अनुभवे है। बहुरि जे सर्वथा सर्व रागद्वेषादि विकारभावनिकरि रहित होय शान्तरस रूप परिणए हैं। बहुरि क्षुधा-तृषाआदि समस्तदोषनित मुक्त होइ देवाधिदेवपनाको प्राप्त भये हैं। बहुरि आयुध अंबरादिक वा अंगविकारादिक जे कामक्रोधादि निंद्यभावनिके चिह्न तिनकरि रहित जिनका परम औदारिक शरीर भया है। बहुरि जिनके वचननितै लोकविषै धर्मतीर्थ प्रयतॆ है, ताकरि जीवनिका कल्याण हो है। बहुरेि जिनके लौकिक उनी पनिळू प्रभुत्व माननेके कारण अनेक अतिशय अर नाना प्रकार विभव तिनिका संयुक्तपना गइये है। बहुरि जिनकों अपना हितके अर्थि गणधर इन्द्रादिक उत्तम जीव सेव हैं। ऐसे सर्यप्रकार पूजने योग्य श्रीअरहंतदेव हैं, तिनिकों हमारा नमस्कार होउ। सिद्धों का स्वरूप अब सिद्धनिका स्वरूप ध्याइये है-जे गृहस्थ अवस्था त्यागि मुनिधर्म साधन” च्यारि घातिकर्मनि का नाश भये अनन्तचतुष्टय भाव प्रगट करि केतेक काल पीछे च्यारि अघातिकर्मनि का भी भस्म होते परम औदारिक शरीरको भी छोरि ऊर्ध्वगमन स्वभावते लोक का अग्रभागविष जाय विराजमान भये । तहां जिनके समस्त परद्रव्य सम्बन्ध छूटनेते मुक्त अवस्थाकी सिद्धि मई, बहुरि जिनकै चरमशरीरसे किंचित् ऊन पुरुषाकारवतू आत्मप्रदेशनिका आकार अवस्थित भया, विशेष - सिद्धों के आत्मप्रदेशों का आकार चरम मनुष्य शरीर से किञ्चित् न्यून होता है। यह मत द्रव्यसंग्रह मूल व टीका (गाथा १४), तिलोयपण्णत्ती ६/१०, लोकविभाग प्रस्तावना पृ. ३०, लोकविभाग ११/६ आदि का है। परन्तु दूसरे मत के अनुसार अन्तिमशरीर का दो तिहाई भाग प्रमाण आकार ही सिद्धावस्था में रहता है - यह मत तिलोयपण्णत्ती ६/६, सिद्धान्तसारदीपक .१६/८/५६० तथा श्रीमद् राजचन्द्र पृष्ट ६२६ आदि पर है। इस प्रकार दो मत हैं। बहुरि जिनकै प्रतिपक्षी कर्मनिका नाश भया, तातें समस्त सम्यक्त्वज्ञान-दर्शनादिक आत्मीक गुण सम्पूर्ण अपने स्वभावको प्राप्त भये हैं, बहुरि जिनकै नोकर्मका सम्बन्ध दूर भया तारौं समस्त अमूर्त्तत्वादिक आत्मीकधर्म प्रकट भये हैं। बहुरि जिनकै भावकर्मका अभाव मया तातै निराकुल आनन्दमय शुद्धस्वभावरूप परिणमन हो है । बहुरि जिनके ध्यानकरि भव्यजीवनि के स्वद्रव्यपरद्रव्य का अर औपाधिक भाव स्वभावभावनि का विज्ञान हो है, ताकरि तिनि सिद्धनिके समान आप होने का साधन हो है। तातै साधनेयोग्य जो अपना शुद्धस्वरूप ताके दिखावनेको प्रतिबिंब समान हैं। बहुरि जे कृतकृत्य भये हैं ताते ऐसे ही अनन्त कालपर्यंत रहे हैं, ऐसे निष्पन्न भये सिद्ध भगवान तिनको हमारा नमस्कार होउ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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