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________________ श्रीमद राजचन्द्र का मोक्षमार्ग प्रकाश : यह पुस्तक श्री राज-सौभाग सत्संग मण्डल, सायला (सौराष्ट्र) से १९८२ में प्रकाशित हुई है। देखने पर पता चला कि यह श्रीमद्जी के कतिपय पत्रों का संकलन मात्र है। पं. टोडरमलजी के मोक्षमार्ग-प्रकाशक से इसका कोई साम्य, सम्बन्ध या समतुल्यता नहीं है। यह संस्करण और विशेषार्थ का औचित्य : __ मोक्षमार्ग-प्रकाशक निर्विवाद रूप से एक अधूरा ग्रन्थ माना गया है। यदि पण्डितजी का वर्ण्य विषय मोक्षमार्ग या रत्नत्रय था तो उसमें से सम्यग्दर्शन की चर्चा ही नवें अध्याय से प्रारम्भ हो पाई है। जब हम पाते हैं कि यह प्रारम्भिक अध्याय ही अधूरा छूट गया, तब हमें यह कहना भी उचित प्रतीत होता है कि ग्रन्थ के आठों अध्याय मात्र उसकी भूमिका ही हैं। उससे ग्रन्थ की रूपरेखा तो स्पष्ट होती है, परन्तु उसके वर्ण्य-विषय का विस्तार सामने नहीं आता। आगमनिष्ठ अध्येता विद्वानों के पास से ही यह न टिनाई रही है जिसम्पूर्ण लिहार के अभाव में मोक्षमार्ग-प्रकाशक के कतिपय विवेचन एकान्त का पोषण करते और आगम के विरोध में स्थापित प्रतीत होते हैं। आगम के आलोक में उनका परीक्षण करके, जब तक उन्हें विवक्षापूर्वक स्पष्ट न किया जाये, तब तक वे स्थल जिनवाणी के हार्द को प्रकट करने में सफल नहीं होते। कहीं-कहीं उनके आधार पर संशय या विपर्यास की भी स्थिति निर्मित हो जाती है। यद्यपि इसमें ग्रन्थकार का प्रमाद जरा भी नहीं है, परन्तु प्रमुखता से दो ऐसे कारण रहे हैं जिनसे स्वयमेव ऐसे प्रसंग बनते गये लगते हैं। सरलमति पाठकों के लिए भ्रान्तियों की सम्भावनाएँ शेष रह जाने में पहला कारण तो ग्रन्थ की अपूर्णता ही रहा है। किसी भी विषय को अतिसंक्षेप में निर्णयात्मक ढंग से कह देना अलग बात है और आगम के आलोक में उसे विस्तार से समझाकर समस्त विवक्षाओं के साथ तालमेल बिठाकर निरूपण करना कुछ अलग बात है। इसीलिए कुछ स्थानों पर सामान्य रूप से कही गई बातें इसलिए प्रश्नचिह्नांकित हो गई क्योंकि उनका विस्तार नहीं हुआ और उस कथन की सारी विवक्षाएँ सामने नहीं आ पाई। इसका एक कारण और रहा कि पण्डितजी के सामने षट्खण्डागम नहीं था। प्रथमानुयोग को छोड़कर शेष तीनों अनुयोगों को जैसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्ररूपणाधवल-जयधवल और महाधवल महाग्रन्थों में हुई है, वैसी सूक्ष्मता से वह प्ररूपणा पण्डितजी के सामने नहीं थी। __ स्खलनाओं और अपूर्णताओं का दूसरा सबसे बड़ा कारण यह रहा कि ग्रन्थ का वास्तविक प्रारम्भ करके, लिखते-लिखते अकस्मात् उनका प्राणहरण हो गया। उन्हें एक बार भी अपना लिखा बांचने का अवसर नहीं मिला। लेखक कितना ही प्रबुद्ध और अम्यस्त हो पर उसे अपने लेखन में संशोधन और परिमार्जन करने की आवश्यकता होती ही है। एक बार पढ़ने पर ही लेखक अपनी रचना की पूर्णता-अपूर्णता और दोष-हीनता की परख कर पाता है। हर लेखक को यह करना ही पड़ता है और यही "पुनरवलोकन'
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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