SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८) अधिकारी न पाते थे। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों के सफल टीकाकार श्री पंडित दौलतरामजी टोडरमलजी के समकालीन विद्वान थे किन्तु टोडरमलजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनके अधूरे ग्रन्थों में से वे पुरुषार्थसि पाय की ही टीका पूरी कर सके। मोक्षमार्ग-प्रकाशक को उन्होंने भी पूरा नहीं किया। -~मथुरा संस्करण / प्रस्तावना | पृष्ठ २ ब्र. शीतलप्रसादजी का प्रयास : पं. टोडरमलजी के इस अधूरे अनुष्ठान को पूरा करने का एक प्रयास १९३० में ब्र. शीतलप्रसादजी ने किया था। उन्होंने श्री प्रेमीजी के १९११ के संस्करण के माध्यम से मोक्षमार्गप्रकाशक का अध्ययन किया और स्वयं पं, टोडरमलजी के संकेतों के अनुसार विष्य निर्धारित करके छोटे आकार के ३४४ पृष्ठों के कलेवर में 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक-द्वितीय भाग' की रचना करके इस अधूरे ग्रन्थ को पूर्ण करने का दावा किया। शायद अपने लेखन को एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की श्रेणी में रखना भी ब्रह्मचारीजी का लक्ष्य रहा हो क्योंकि उन्होंने इसमें नये सिरे से सम्यग्दर्शन, देव-शास्त्र-गुरु और सात तत्त्वों का सविस्तार वर्णन किया। अंतिम दो सौ पृष्ठों में करणानुयोग के विषय का निरूपण करके उन्होंने कुछ संदृष्टियाँ प्रस्तुत की हैं जो महत्त्वपूर्ण कही जा सकती हैं। परन्तु इस पुस्तक से बात कुछ बनी नहीं। पण्डितजी का संकल्प जैसा सर्वांग, परिपूर्ण और विशाल था, उसके आगे ब्रह्मचारीजी का प्रयास एक बौना सा प्रयास ही रहा। ब्र.शीतलप्रसादजी अपने सुधारक विचारों के लिए विख्यात हो चुके थे। उनके विधवा-विवाह समर्थक होने के कारण समाज में उनका विरोध भी होने लगा था। इसी पृष्ठभूमि में जब उनके द्वारा मोक्षमार्ग-प्रकाशक का द्वितीय भाग लिखने की घोषणा हुई तो उसका विरोध भी हुआ। ग्रन्थ के प्रकाशन के पूर्व ही "जैन गजट'' में उसके विरोध में कुछ लेख आदि प्रकाशित हुए और इन्दौर की महिला परिषद् ने ग्रन्थ के विरोध में एक प्रस्ताव भी पारित किया। परन्तु ब्रह्मचारीजी ने विरोध की आवाज को अनसुना करते हुए ग्रन्थ को सूरत से प्रकाशित किया और 'जैन-मित्र' के ग्राहकों को नि:शुल्क भेंट कराया। भूमिका में ब्रह्मचारीजी ने अपनी लघुता और पं. टोडरमलजी की महत्ता को स्वीकार करते हुए इसे मात्र एक वैकल्पिक प्रयास कहा था परन्तु उनके लेखन ने पं. टोडरमलजी के संकल्प के शायद शतांश को भी पूरा नहीं किया। इसीलिए उनकी वह रचना काल के गाल में विलीन होकर रह गई। फिर दुबारा उसकी कोई आवृत्ति निकली हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला। मोक्षमार्ग-प्रकाशक में और उसके इस द्वितीय भाग में उतना ही अंतर था जितना अंतर आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी में था।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy