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________________ सातवाँ अधिकार - १६५ तपश्चरण करना वृथा क्लेश करना मान है, व्रतादिकका थारना बंधनमें परना ठहरावे है, पूजनादि कार्यनिको शुभास्रव जानि हेय प्ररूपै है; इत्यादि सर्व साधनको उठाय प्रमादी होय परिणमे है। सो शास्त्राभ्यास निरर्थक होय तो मुनिनकै भी तो ध्यान अध्ययन दोय ही कार्य मुख्य हैं । ध्यानविषे उपयोग न लागे, तब अध्ययनहीविषै उपयोगकूं लगाये है, अन्य ठिकाना बीच में उपयोग लगावने योग्य है नाहीं । बहुरि शास्त्र अभ्यासकार तत्त्वनिका विशेष जाननेतें सम्यग्दर्शन ज्ञान निर्मल होय । बहुरि तहाँ यावत् उपयोग रहै, तावत् कषाय मन्द रहे । बहुरि आगामी वीतरागभावनिकी वृद्धि होय। ऐसे कार्यको निरर्थक कैसे मानिए ? बहुरि वह कहै है- जो जिनशास्त्रनिविषै अध्यात्म उपदेश है, तिनि का अभ्यास करना, अन्य शास्त्रनिका अभ्यासकरि किछू सिद्धि नाहीं । ताको कहिए है- जो तेरै सांची दृष्टि भई है, तो सर्व ही जैन शास्त्र कार्यकारी हैं। तहाँ भी मुख्यपने अध्यात्म शास्त्रनिविषै तो आत्मस्वरूपका मुख्य कथन है सो सम्यग्दृष्टी भए आत्मस्वरूपका तो निर्णय होय चुकै, तब तो ज्ञान की निर्मलता के अर्थि वा उपयोग को मंद कषायरूप राखनेके अर्थि अन्य शास्त्रनिका अभ्यास मुख्य चाहिए। अर आत्मस्वरूपका निर्णय भया है, ताको स्पष्ट राखने के अर्थ अध्यात्मशास्त्रनिका भी अभ्यास चाहिए परन्तु अन्य शास्त्रनिविषे अरुचि तो न चाहिए। जाकै अन्य शास्त्रनिकै अरुचि है, तार्क अध्यात्मकी रुचि सांची नाहीं। जैसे जाकै विषयासक्तपना होय, सो विषयासक्त पुरुषनिकी कथा भी रुचितें सुनै वा विषयके विशेषको भी जाने वा विषयके आचरनविषै जो साधन होय ताको भी हितरूप मानै वा विषयका स्वरूपको भी पहिचाने। तैसे जाकै आत्मरुचि भई होय, सो आत्मरुचिके धारक तीर्थंकरादिक तिनका पुराण भी जाने । बहुरि आत्माके विशेष जाननेको गुणस्थानादिकको भी जानै । बहुरि आत्माचरणाविषै जे व्रतादिक साधन हैं, तिनको भी हितरूप मानै । बहुरि आत्माके स्वरूपको भी पहिचान । तातें चारयों ही अनुयोग कार्यकारी हैं। बहुरि तिनका नीका ज्ञान होनेके अर्थ शब्द न्यायशास्त्रादिकको भी जानना चाहिए। सो अपनी शक्तिके अनुसार सबनिका थोरा वा बहुत अभ्यास करना योग्य है । बहुरि वह कहे है, 'पद्मनन्दिपच्चीसी' विषै ऐसा कह्या है- जो आत्मस्वरूपत निकसि बाह्य शास्त्रनिविषै बुद्धिं विचरै है, सो वह बुद्धि व्यभिचारिणी है। ताका उत्तर- यहु सत्य कह्या है। बुद्धि तो आत्माकी है, ताको छोरि परद्रव्य शास्त्रनिविषै अनुरागिणी भई, ताको व्यभिचारिणी ही कहिए। परन्तु जैसे स्त्री शीलवती रहे तो योग्य ही है अर न रह्या जाय तो उत्तम पुरुषको छोरि चांडालादिकका सेवन किए तो अत्यन्त निंदनीक होइ। तैसे बुद्धि आत्मस्वरूपविषै प्रवर्ते तो योग्य ही है अर न रह्या जाय तो प्रशस्त शास्त्रादि परद्रव्यको छोरि अप्रशस्त विषयादिविषै लगे तो महानिंदनीक ही होइ। सो मुनिनिकै भी स्वरूपविषे बहुत काल बुद्धि रहे नाहीं तो तेरी कैसे रह्या करे? तातें शास्त्राभ्यासविषै उपयोग लगावना युक्त है। बहुरि जो द्रव्यादिकका था गुणस्थानादिकका विचारको विकल्प ठहरावे है, सो विकल्प तो है परंतु निर्विकल्प उपयोग न रहै तब इनि विकल्पनिको न करे तो अन्य विकल्प होइ, ते बहुत रागादि गर्भित हो
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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