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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१५८ ग्रहणरूप मान है। सो तत्त्वार्थसूत्रविषै आस्रव-पदार्थका निरूपण करते महाव्रत अणुव्रत भी आस्रवरूप कहे हैं। ए उपादेय कैसे होय? अर आस्रव तो बंधका साधक है, चारित्र मोक्षका साधक है तातै महाव्रतादिरूप आस्रवभावनिको चारित्रपनो सम्भवै नाही, सकल कषायरहित जो उदासीनभाव ताहीका नाम चारित्र है। जो चारित्रमोहके देशघाती स्पर्द्धकनिके उदयतें महामंद प्रशस्त राग हो है, सो चारित्रका मल है। याको छूटता न जानि याका त्याग न करै है, सावद्ययोगहीका त्याग करै है। परन्तु जैसे कोई पुरुष कंदमूलादि बहुत दोषीक हरितकायका त्याग करै है अर केई हरितकायनिको भखै है परन्तु ताको धर्म न माने है। तैसे मुनि हिंसादि तीव्रकषायरूप भावनिका त्याग करे है अर केई मंदकषाय रूप महाग्रतादिको पाले हैं परन्तु ताको मोक्षमार्ग न माने हैं। विशेष- परम पूज्य धवला जी (पु.८ पृ.८३ पर) स्पष्ट कहा है कि असंखेज गुणाए सेडीए कम्मणिज्जरण हेदू वदं णाम अर्थात् असंख्यात गुणश्रेणी द्वारा निर्जरा होने के कारण निश्चय से व्रत है। (देखिए-वृहज्जिनोपदेश पृ.१८८-१८६) आगम में अणुव्रत-महाव्रत को क्षायोपशमिक भाव ही कहा है। धवल १३/३६० पर- अणुव्रतानामप्रत्याख्यानसंज्ञा (अणुव्रतों को अप्रत्याख्यान संज्ञा है) कहा तथा वहीं पर पच्चक्खाणं महव्ययाणि (घ. १३/३६०) अर्थात प्रत्यारगान का अर्थ महावत है, ऐसा कहा। फिर आगे कहा है कि उनका अर्थात् अणुव्रतों का आवरण करने वाला कर्म अप्रत्याख्यानावरण कषाय है तथा महाव्रतों का आवरण करने वाली प्रत्याख्यानावरण कषायें हैं। (धवल १३/३६०) इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनके अणुव्रत या महाव्रत हैं उनके निश्चय ही उक्त कषायों की चौकड़ियाँ नहीं हैं और जिनके उक्त चौकड़ियाँ नहीं हैं, वे स्पष्टतः चारित्र गुण के क्षायोपशमिक भाव से युक्त हैं ही। कहा भी है-संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत ये तीनों क्षायोपशमिक भाव हैं। अतः अणुव्रत महाव्रत निर्जरा के कारण हैं। तथापि यहाँ जो लिखा है वह उस व्रत के साथ होने वाले मन्द राग को लक्ष्य कर उस दृष्टि से उसे आसव-बंध का कारण कहा है, ऐसा समझना चाहिए। देशव्रती महाव्रती को आस्त्रव-बंध संवर निर्जरा ये चारों होते ही हैं। यहाँ प्रश्न- जो ऐसे है तो चारित्र के तेरह भेदनिविषै महाव्रतादि कैसे कहे हैं? ताका समाधान- यहु व्यवहारचारित्र कह्या है। व्यवहार नाम उपचारका है। सो महाव्रतादि मए ही वीतरागचारित्र हो है। ऐसा सम्बन्ध जानि महाव्रतादिविषै चारित्रका उपचार किया है। निश्चयकरि निःकषाय भाव है सोई साँचा चारित्र है। या प्रकार संवरके कारणनिको अन्यथा जानता संवरका साँचा श्रद्धानी न हो है। निर्जरा तत्त्वके श्रद्धानकी अयथार्थता बहुरि यहु अनशनादि तपत निर्जर माने है। सो केवल बाह्यतप ही तो किए निर्जरा होय नाहीं।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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