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________________ भातवाँ अधिकार - १७ बहुरि सिद्धांतावषे गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र इनकरि संवर हो है, ऐसा कह्या है' सो इनको भी यथार्थ न श्रद्धहे है। कैसे सो कहिए है बाह्य मन वचन कायकी चेष्टा मेटै, पापवितवन न करै, मौन धरै, गमनादि न करै सो गुप्ति मानै है। सो यहाँ तो मनविषै भक्ति आदि रूप प्रशस्त रागकरि नाना विकल्प हो हैं, वचन कायकी चेष्टा आप रोकि राखी है तहाँ शुभप्रवृत्ति है अर प्रवृत्तिविष गुप्तिपनो बनै नाहीं । तातै वीतरागभाव भए जहाँ मन वचन कायकी चेष्टा न होय सो ही साँची गुप्ति है। बहुरि परजीवनिकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति ताको समिति मान है। सो हिंसाके परिणामनित तो पाप हो है अर रक्षाके परिणामनित संवर कहोगे तो पुण्यबंधका कारण कौन ठहरेगा। बहुरि एषणासमितिविषै दोष टाले है। तहाँ रक्षाका प्रयोजन है नाहीं। ताते रक्षाहोनेके अर्थ समिति नाहीं है। तो समिति कैसे हो है- मुनिन के किंचित् राग भए गमनादि क्रिया हो हैं। तहाँ तिन क्रियानिदिदै अति आसक्तताके अभावते प्रमादरूप प्रवृत्ति न हो है। बहुरि और जीवनिको दुःखीकरि अपना गमनादि प्रयोजन न साथै हैं ताः स्वयमेव ही दया पलै है। ऐसे सांची समिति है। बहुरि बंधादिकके भयतें स्वर्गमोक्षकी चाहते क्रोधादि न करै है, सो यहाँ क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो गया नाही। जैसे कोई राजादिकका भय” वा महतपनाका लोमः परस्त्री न सेवै है, तो वाको त्यागी न कहिए। तैसे ही यहु कोथादिका त्यागी नाहीं। तो कैसे त्यागी होय? पदार्थ अनिष्ट इष्ट भासै क्रोयादि हो है। जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास ते कोई इष्ट अनिष्ट न भासै, तब स्वयमेव ही क्रोधादिक न उपजै, तब साँचा धर्म हो है। बहुरि अनित्यादि चितवनतें शरीरादिकको बुरा जानि हितकारी न जानि तिनतें उदास होना ताका नाम अनुप्रेक्षा कई हैं। सो यहु तो जैसे कोऊ मित्र था, तब उस राग था, पीछे वाका अवगुण देखि उदासीन मया । तैसे शरीरादिकः राग था, पीछै अनित्यादि अवगुण अवलोकि उदासीन भया सो ऐसी उदासीनता तो द्वेषरूप है। जहाँ जैसा अपना वा शरीरादिकका स्वभाव है, जैसा पहिचान भ्रमको मेटि भला जानि राग न करना, बुरा जानि द्वेष न करना, ऐसी सांची उदासीनता अर्थि यथार्थ अनित्यत्वादिकका चितवन सोई सांची अनुप्रेक्षा है। बहुरि क्षुधादिक भए तिनके नाशका उपाय न करना, ताको परीषह सहना कहै है। सो उपाय तो न किया अर अंतरंग क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिले दुःखी भया, रति आदिका कारण मिले सुखी भया तो जो दुःख-सुखरूप परिणाम हैं, सोई आतध्यान रौद्रध्यान हैं। ऐसे भावनितें संवर कैसे होय? ताः दुःखका कारण मिले दुःखी न होय, सुखका कारण मिले सुखी न होय. ज्ञेयरूपकरि तिनिका जाननहारा ही है, सोई सांची परीषहका सहना है। बहुरि हिंसादि सावधयोगके त्यागको चारित्र मानै है। तहाँ महाव्रतादिरूप शुभयोगको उपादेयपनेकर १. स गुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयवारिकः । तत्त्वा. सू. ६-२
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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