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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-३० अवधिज्ञान : प्रवृत्ति और उसके भेद बहुरि अपनी मर्यादाके अनुसार क्षेत्रकाल का प्रमाण लिए रूपी पदार्थनिको स्पष्टपने जाकरि जानिये सो अवधिज्ञान है सो यह देव नारकोनिकै तो सर्वकै पाइए है अर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच अर मनुष्यनिकै भी कोईकै पाइए है। असंजीपर्यन्त जीवनिकै यह होता ही नाहीं । सो यहु भी शरीरादिक पुद्गलनिके आधीन है। बहुरि अवधि के तीन भेद हैं। दशाधि ५, परमायाँध २, सर्वोपधि ३. तो इनविषै थोरा क्षेत्रकालकी मर्यादा लिये किंचिन्मात्र रूपी पदार्थको जाननहारा देशावधि है सो ही कोई जीवकै होय है। बहुरि परमावधि सर्वावधि अर मनःपर्यय ए ज्ञान मोक्षमार्गविष प्रगटै है। केवलज्ञान मोक्षस्वरूप है ताते इस अनादि संसार अवस्था विष इनका सद्भाव ही नाहीं है, ऐसे तो ज्ञानकी प्रवृत्ति पाइए है। बहुरि इन्द्रिय वा मनके स्पर्शादिक विषय तिनका सम्बन्थ होते प्रथम कालविषै मतिज्ञानके पहले जो सत्तामात्र अवलोकनरूप प्रतिभास हो है ताका नाम चक्षुदर्शन वा अचक्षुदर्शन है। तहां नेत्र इन्द्रियकरि दर्शन होय ताका नाम तो चक्षुदर्शन है सो तो चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय जीवनिहीकै हो है। बहुरि स्पर्शन रसन घ्राण श्रोत्र इन च्यार इन्द्रिय अर मन करि दर्शन होय ताका नाम अचक्षुदर्शन है सो यथायोग्य एकेन्द्रियादि जीवनिकै हो है। बहुरि अवधिक विषयनिका सम्बन्ध होते अवधिज्ञान के पहले जो सत्तामात्र अवलोकनेरूप प्रतिभास होय ताका नाम अवधिदर्शन है सो जिनकै अवधिज्ञान सम्भवै तिनहीकै यहु हो है। जो यहु चक्षु अचक्षु अवधिदर्शन है सो मतिज्ञान या अवधिमानवत् पराधीन जानना। बहुरि केवलदर्शन मोक्षस्वरूप है ताका यहाँ सद्भाव ही नाहीं। ऐसे दर्शनका सद्भावं पाइए है या प्रकार ज्ञान-दर्शनका सद्भाव ज्ञानावरण दर्शनावरणका क्षयोपशम के अनुसार हो है। जब क्षयोपशम थोरा हो है तब ज्ञानदर्शनकी शक्ति भी थोरी हो है। जब बहुत हो है तब बहुत हो है। बहुरि क्षयोपशमतें शक्ति तो ऐसी बनी रहे अर परिणमनकरि एक जीवकै एक कालविषै एक विषयहीका देखना वा जानना है। इस परिणमनहीका नाम उपयोग है। तहाँ एक जीवकै एक कालविषै के तो ज्ञानोपयोग हो है के दर्शनोपयोग हो है। बहुरि एक उपयोगका भी एक ही भेदकी प्रवृत्ति हो है। जैसे मतिज्ञान होय तब अन्य ज्ञान न होय। बहुरि एक भेदविषै भी एक विषयविष ही प्रवृत्ति हो है। जैसे स्पर्शको जानै तब रसादिकको न जानै। बहुरि एक विषय विर्ष भी ताके कोऊ एक अंग ही विष प्रवृत्ति हो है। जैसे उष्णस्पर्शको जानै तब रूक्षादिकको न जाने। विशेष-धवला में लिखा है कि स्निग्ध-मृदु-कठिनोष्ण-गुरु-लघु-शीतादिद्रव्यविषयः अक्रमवृत्ति-बहुविधः प्रत्ययः स्पर्शनेन्द्रियजः । न चायमसिनः, उपलभ्यमानत्वात् न चोपलम्मः अपहोतुं पार्यते, अव्यवस्थापत्तेः (धवल पु. १३ पृ. २३७ प्रथम अनुच्छेद) अर्थ-स्निग्ध, मृदु, कठिन, उष्ण, गुरु, लघु और शीत आदि द्रव्यविषयक युगपत् (एक साथ) होने वाला प्रत्यय (ज्ञान) स्पर्शनेन्द्रियज बहुविध-प्रत्यय (ज्ञान) है। ऐसा प्रत्यय (ज्ञान) होना असिद्ध
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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