________________
टूसरा अधिकार-३१
भी नहीं है, क्योंकि उसकी उपलब्धि होती है और उपलब्धि का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा करने पर अव्यवस्था की आपत्ति आती है। वहुत गन्ध आदि का भी इस तरह युगपत् शनि सम्भव है। कहा भी है
गरु-तुरुष्क-चन्दनादिगन्थेष्वक्रमवृत्तिः प्राणजो बहुविधप्रत्ययः (वही ग्रन्थ, वही पृष्ठ)
अर्थ- कपूर, अगरु तुरुष्क और चन्दन आदि की गन्धों का युगपत् होने वाला प्रत्यय (ज्ञान) + अगला बहुविध प्रत्यय है।
राणवार्तिक में भी कहा है- प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरण वीर्यान्तराय क्षयोपशमांगोपांगनामोपष्टम्भात् सामन्नमाता अन्यो वा युगपत् ततविततधनसुषिरादिशब्दश्रवणात् बहुशब्दमवग्रहणाति।...... (रा.
L/E/६/६३ से ६६) ....... अर्थ रखेगेन्द्रिय (ज.नी और दोन्निास का प्रकृष्ट (उत्तम) क्षयोपशम होने पर (यानी साधारण क्षयोपशमी मनुष्य के नहीं) तथा तदनुकूल अंगोपांग नामकर्म के उदय से, संभिन्न श्रोता
अन्द पुरुष एक साथ (क्रम से नहीं) तत, वितत, धन, सुषिर आदि का श्रवण बन जाने से "शब्द का अवग्रह ज्ञान करता है। , इस प्रकार आगमानुसार महान् क्षयोपशम सम्पन्न जीव युगपत् शीत रूक्ष उष्ण आदि स्पशी को एक ही काल में जान लेता है। किसी/व्यक्ति विशेष के किसी ज्ञानविशेष का अभाव होने से पुतान्तर. में भी. उस ज्ञान का अभाव निश्चित नहीं किया जा सकता ।
यदि यह कहा जाए कि “अनेक उपयोग कालों को उपचार से एक काल मान कर फिर पुगपत् बहुविध अवग्रह आदि बनता है, ऐसा समझना चाहिए।” तो इसका उत्तर यह है कि प्रथम केस तरह अप्रकृष्ट-सामान्य क्षयोपशम वालों के भी, क्रम करके तो, अव्यवधान रूप से,
कीय, शीत उष्ण आदि का ज्ञान बन जाने से बहुविध अवग्रह मानना पड़ेगा जो आगम (रा. वा. १/१६/१६ प्रकृष्ट-श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशम.......) के विरुद्ध है। दूसरा, बहुविध अक्ग्रह, ईला, अवाय, थारणा का ही अभाव आजायगा। क्योंकि उपालम्भकर्ता के अनुसार क्रमशः व निरन्तर संजात भीत, उष्ण आदि का ज्ञान तो एक या एकविध अवग्रह स्वरूप ही होगा। क्योंकि वहाँ तो क्रमशः निरन्तर एकावग्रह या एकविधावग्रह ही, प्रति अन्तर्मुहूर्त भिन्न-भिन्न स्वीकार किये जा रहे हैं। दूसरे, आगम में कालक्रम से ज्ञात एकावग्रहों का योग बहु-अवग्रह रूप से; तथा एवमेव कालक्रम से लब्ध एकविधावग्रहों के योग को बहुविधावग्रह कहा भी नहीं है।
ऐसे एक जीयकै एक कालविर एक ज्ञेय वा दृश्यविषै ज्ञान वा दर्शनका परिणमन जानना । सो ऐसे
*