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________________ पहला अधिकार-५ भरत तथा विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थकर बहुरि रिषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंद्रप्रम, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयान्, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामधारक चौबीस तीर्थकर इस भरतक्षेत्र - विषं वर्तमान थर्मतीर्थ के नायक भये, गर्भ-जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण फाल्याणकनिविर्षे इन्द्रादिकनिकरि विशेष पूज्य होई अब सिमासयपि पिराजै हैं, तिनिको हमारा नमस्कार होहु। बहुरि सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, वृषभानन, अनंतवीर्य, सूरप्रभ, विशालकीर्ति, वज्रधर, चन्द्रानन, चन्द्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितवीर्य नामधारक बीसतीर्थकर पंचमेरु सम्बन्धी विदेहक्षेत्रनिविर्षे अवार केवलज्ञान (सहित) विराजमान है तिनिको हमारा नमस्कार हो । यद्यपि परमेष्ठी पदविष इनका गर्भितपना है तथापि विद्यमान कालविषै इनको विशेष जानि जुदा नमस्कार किया है। जिनबिम्ब तथा जिनवाणी बहुरि त्रिलोकविवे जे अकृत्रिम जिनविम्ब विराजै है मध्यलोकविषै विथिपूर्वक कृत्रिम जिनबिम्ब विराज है, जिनके दर्शनादिकत (स्वपरभेद-विज्ञान होय है, कषाय मंद होय शान्तभाव हो है वा) एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हितकी सिद्धि जैसे तीर्थंकर केवलीके दर्शनादिकतै होइ तैसे ही होइ, तिनि जिनविषनिकों हमारा नमस्कार होउ। विशेष : पखण्डागम में भी लिखा है कि मनुष्यों के सम्यक्त्व उत्पन्न होने के तीन कारण हैं - १. जातिस्मरण २. थर्मोपदेशश्रवण तथा ३. जिनबिम्बदर्शन । (धवल ६/४२६)। जिनबिम्बदर्शन से नियत्त तथा निकाचित रूप भी मिध्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है। (थवल ६/४२७) मेरु पर्वत पर किये जाने वाले जिनेन्द्र-जन्म-महोत्सवों को विद्याधर मनुष्य देखते हैं और उस कारण कितने ही विधाथर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं। (घवल ६/४३०) बृहद् नयचक्र में भी लिखा है कि तीर्थकर, केवली, श्रमण, भवस्मरण, शास्त्र, देवमहिमा (जिनबिम्बदर्शन अन्तर्भूत) आदि सम्यग्दर्शन के बाम कारण हैं। (नयचक्र ३१६) यही सब राजवार्तिक २/३/२ पृ. १०५ आदि में भी है। बहुरि केवली की दिव्यध्वनिकरि दिया उपदेश ताकै अनुसारि गणधरकरि रचित अंगप्रकीर्णक तिनकै अनुसारि अन्य आचार्यादिकनिकार रचे ग्रन्थादिक ऐसे ये सर्व जिनवचन हैं, स्याद्धादधिहकरि पहचानने योग्य है, न्यायमार्गत अविरुद्ध हैं, ताते प्रमाणीक हैं, जीवको तत्त्वज्ञान के कारण हैं, ताते उपकारी है, तिनको हमारा नमस्कार होउ। १. प्रतिष्ठादि विधान से प्रतिष्ठित। २. कोष्ठक वाली पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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