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________________ मोनमागं प्रकायक-११ किया। तहाँ यज्ञादिकवि हिंसादिक पोषे अर बुद्धावतार यज्ञ का निंदक होय हिंसादिक निषेधे। वृषभावतार वीतराग संयम का मार्ग दिखाया। कृष्णावतार परस्त्री रमणादि विषय कषायादिकनिका मार्ग दिखाया। सो अब यह संसारी कौनका कह्या करे, कौनके अनुसारि प्रयतै अर इन सब अवतारनिको एक बतावै सो एक ही कदाचित् कैसे, कदाचित् कैसे कहै वा प्रवर्ते तो याकै उनके कहने की वा प्रवर्तने की प्रतीति कैसे आवे? बटुरि कहीं क्रोधादिकषायनिका वा विषयनिका निपेय करें, कहीं लानेका वा विषयादिसेवनका उपदेश दें: तहाँ प्रारब्ध बतावै सो बिना क्रोधादि भा। आपहीते लग्ना आदि कार्य होय तो यह भी मानिए सो तो होय नाहीं । बहरि लाना आदि कार्य करते क्रोधादि भा न मानिए तो जुदे ही क्रोधादि कौन हैं जिनका निपेश किया। तातें बने नाही, पुर्वापर विरोध है गीतानिविषे वीतरागता दिग्बाय लरनेका उपदेश दिया सो यह प्रत्यक्षा विरोध भासै है। बहुरि ऋषीश्वरादिकनिकरि श्राप दिया बतावै, मो ऐसा क्रोध किए निंद्यपना कैसे न भया? इत्यादि जानना। वहार अपुत्रस्य गतिनास्ति' ऐसा भी कहै अर भारत विषै ऐसा भी कह्या है अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । दिवं गतानि राजेन्द्र अकृत्वा कुलसन्ततिम् ।।१।। यहाँ कुमार ब्रह्मचारीनिको स्वर्ग गए बताए. सो गह परस्पर विरोध है। बहुरि ऋषीश्वर भारतविषै ऐसा कह्या है मद्यमांसाशन रात्री भोजन कंदभक्षणम्। ये कुर्वन्ति वृधास्तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः।।१।। वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः । वृथा च पौष्करी यात्रा कृत्स्नं चान्द्रायणं वृथा।।२।। चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः। तस्य शुद्धिर्न विद्येत चान्द्रायणशतैरपि।।३।। इन विष मद्य-मांसादिकका वा रात्रिभोजन का वा चौमासे में विशेषपने रात्रिभोजनका वा कंदफनभक्षण का निषेध किया। बहुरि बड़े पुरुषनिकै मद्यमांमादिकका सेवन करना कहै, व्रतादि विषै रात्रिभोजन स्थापै वा कंदादि भक्षण स्थापै, ऐसे विरुद्ध निरूप है। ऐसे ही अनेक पूर्वापर विरुद्ध वचन अन्यमत के शास्त्रनिविषै हैं सो करै कहा, कहीं तो पूर्वपरम्परा जानि विश्वास अनावनेके अर्थि यथार्थ कह्या अर कहीं विषयकषाय पोपने के अर्थि अन्यथा कह्या । सो जहाँ पूर्वापर विरोध होय, तिनका वचन प्रमाण कैसे करिए। इहां जो अन्य मतनिविषै क्षमा शील सन्तोषादिक को पोषने वचन हैं सो तो जैनमतविषै पाइए है अर विपरीत वचन है सो उनका कल्पित है। जिनमत अनुसारि वचननिका विश्वास उनका विपरीतवचन का श्रद्धानादिक होयजाय, तार्तं अन्यमतका कोऊ अंग भला देखि भी तहां श्रद्धानादिक न करना। जैसे विमिश्रित भोजन हितकारी नाहीं तैसे जानना । बहुरि जो कोई उत्तम धर्मका अंग जिनमतविषै न पाईए अर अन्यमत विप पाईए, अथवा कोई निषिद्ध अधर्मका अंग जैनमत विषै पाईए अर अन्यत्र न पाईए, तो
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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