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________________ पांचवा अधिकार-११७ "दशभिर्मोजितैविप्रैः यत्फलं जायते कृते। मुनरर्हत्सुभक्तस्य तत्फलं जायते कली ।।१।।" । यहाँ कृतयुगविषै दश ब्राह्मणों को भोजन कराएका जेता फल कह्या, तेता फल कलियुगविषै अर्हतभक्तमुनिके भोजन कराएका कह्या, ताजैनीमुनि उत्तम ठहरे । बहुरि 'मनुस्मृति' विषै ऐसा कया है.. "कुलादिबीजं सर्वेषां प्रथमो विमलयाहनः। चक्षुष्मान यशस्वी वाभिचन्द्रोऽथ प्रसेनजित्।।१।। मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुलसत्तमाः। अष्टमो मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरक्रमः ।।२।। दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरासुरनमस्कृतः । नीतित्रितयकर्ता यो युगादौ प्रथनो जिनः।।३।।" यहाँ विमलवाहनादिक मनु कहिए सो जैनविषै कुलकरनि के ए नाम कहे हैं अर यहाँ प्रथम जिन युग की आदिविषै मार्गका दर्शक अर सुरासुरकर पूजित कह्या, सो ऐसे ही है तो जैनमत युमकी आदिहीत है अर प्रमाणभूत कैसे न कहिए। बहुरि ऋग्वेदविषै ऐसा कह्या है ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान् चतुर्विंशतितीर्थकरान् ऋषभाद्यान् वर्द्धमानान्तान सिद्धान् शरणं प्रपधे। ॐ पवित्रं नग्नमुपविस्पृसामहे एषां नग्नं येषां जातं येषां दीरं सुवीरं इत्यादि। बहुरि यजुर्वेदविषै ऐसा कह्या हैॐ नमो अर्हतो ऋषभाय। बहुरि ऐसा कह्या है ॐ ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्यरं यज्ञेषु नग्न परमं माहसंस्तुतं वरं शत्रु जयंतं पशुरिंद्रमाहुतिरिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिंद्रं ऋषभं वदन्ति। अमृतारमिंद्रं हवे सुगतं सुपार्श्वमिंद्रं हये शक्रमजितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमिंद्रमाहुरिति स्वाहा । ॐ नग्नं सुथीरं दिग्याससं ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमहतमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् स्वाहा। ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमि स्वस्ति नो वृहस्पतिर्दधातु दीर्घायुस्त्वायुवलायुर्वा शुभजातायु । ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा। वामदेव शान्त्यर्थमनुविधीयते सोऽस्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा।' सो यहाँ जैनतीर्थकरनिके जे नाम हैं तिनका पूजनादि कह्या। बहुरि यहां यहु भास्या, जो इनके पीछे वेद रचना भई है। वे ऐसे अन्यमत के ग्रंथनिकी साक्षी भी जिनमतकी उत्तमता अर प्राचीनता दृढ़ भई। अर जिनमतको देखें वे मत कल्पित ही भासै । तातें जो अपना हित का इच्छुक होय सो पक्षपात छोरि साँचा जैनधर्मको अंगीकार करो। बहुरि अन्यमतनिविषै पूर्वापर विरोध भासे हैं। पहले अवतार येदका उद्धार १.. यजुर्वेद अ. २५ म. १६ । ऋग्वेद अष्ट १ अ. ६ वर्ग १६ ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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