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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - ५१६ ऋषभावतार के अनुसारि वीतराग साम्यभावकी प्रवृत्ति हो हैं । यहाँ दोऊ प्रवृत्ति समान माने धर्म अधर्मका विशेष न रहे अर विशेष माने भली होय सो अंगीकार करनी । बहुरि दशावतारचरित्र विषै- " बद्ध्वा पद्मासनं यो नवयुगामेदं यस्य नासा का स्वरूप अरहंत देव सारिखा लिख्या है, सो ऐसा स्वरूप पूज्य है तो अरहंतदेव पूज्य सहज ही भया । इत्यादि बहुरि काशी खंडविषै देवदास राजा नै सम्बोधि राज्य छुड़ायो। वहाँ नारायण तो विनयकीर्ति यत्ती भया, लक्ष्मीको विनयश्री आर्यिका करी, गरुड़ को श्रावक किया ऐसा कथन है। सो जहाँ सम्बोधन करना भवा तहाँ जैनी भेष बनाया। तातैं जैन हितकारी प्राचीन प्रतिभा है। बहुरि 'प्रभासपुराण' विषै ऐसा कह्या हैं भवस्य पश्चिमे भागे वामनेन तपः कृतम् । तेनैव तपसाकृष्टः शिवः प्रत्यक्षतां गतः । । १ । । पद्मासनसमासीनः श्याममूर्तिर्दिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेत्येवं नामचक्रेऽस्य वामनः ॥ २ ॥ कलिकाले महाघोरे, सर्वपापप्रणाशकः । दर्शनात्स्पर्शनादेव, कोटियज्ञफलप्रदः । । ३ । । यहाँ वामनको पद्मासन दिगम्बर नेमिनाथ का दर्शन भया कह्या बाहीका नाम शिव कया । बहुरि ताके दर्शनादिकर्ते कोटियज्ञ का फल कह्या सो ऐसा नेमिनाथ का स्वरूप तो जैनी प्रत्यक्ष माने हैं, सो प्रमाण ठहरचा । बहुरि प्रभासपुराणविषे कया है "रेयसाद्री जिनो नेमिर्युगादिर्विमलाचले । ऋषीणामाश्रमादेव मुक्तिमार्गस्य कारणम् 119 । । * यहाँ नेमिनाथ को जिनसंज्ञा कही, ताके स्थानको ऋषि का आश्रम मुक्तिका कारण का अर युगादिके स्थानको भी ऐसा ही कह्या, तातें उत्तम पूज्य ठहरे। बहुरि 'नगरपुराण' (नागपुराण) विषै भवावताररहस्यविषै ऐसा कह्या है "अकारादिहकारान्तमुदुर्द्धा थोरेकसंयुतम् । नादविन्दुकलाक्रान्तं चन्द्रमण्डलसन्निभम् । । १ । । एतद्देवि परं तत्त्वं यो विजानाति तत्त्वतः । संसारबन्धनं छित्वा स गच्छेत्परमां गतिम् ॥ २ ॥ यहाँ 'अहं' ऐसे पदको परमतत्त्व कह्या । याके जाने परमगतिकी प्राप्ति कही सो 'अहं' पद जैनमत उक्त है। बहुरि नगरपुराणविषै कया है
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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