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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - २२६ ( जयधवला १२ / २६१-६२) किञ्च प्रथमास्था तथा अन्तरायाम को मिलाकर कुछ अधिक करने पर जो आता है वह भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। (यथा- प्रथमस्थिति + अन्तरायाम + कुछ काल = अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बध्यमान मिध्यात्व की अन्तरकरणकालीन आबाधा । ल. सा. पृ. ६८ प्रथम अनुच्छेद पं. फूलचन्द्र जी सि. शा.) यहाँ प्रथम स्थिति भी नियम से संख्यात अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। (देखें ज. ध. १२ / २८६ ) यानी अन्तरायाम के अन्तर्मुहूर्त में संख्यात अन्तर्मुहूर्ती को मिलाने पर भी प्रकृत में मुहूर्त नहीं बनता । यह कथनाभिप्राय है । इस प्रकार मोक्षमार्गप्रकाशक में इस स्थल पर मुहूर्त की जगह अन्तर्मुहूर्त ही चाहिए, ऐसा निर्विवाद उपादेय है। किंच, स्वयं पं. टोडरमलजी ने ही अन्यत्र ४ स्थानों पर अन्तर्मुहूर्त मात्र निषेकों का अभाव करना कहा है, मुहूर्तमात्र निषेकों का नहीं । यथा ( १ )... ऐसा अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तरायाम है। इतने निषेकनिका अभाव करै है | ( ल. सा. पृ. २६६ जैन सि. प्र. संस्था, कलकत्ता) : ( २ ) .... अन्तरायाम हो है । एते निषेकनि का अभाव करिए है, सो ए भी अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं ( ल. सा. ८६ की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका, पृ. ६७, राजचन्द्रशास्त्रमाला ) (३) जिनि निषेकनिका अभाव किया सो अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तरायाम है। ( वही पृष्ठ ) ( ४ ) ल. सा. ६५ की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका से भी यही स्पष्ट होता है। अन्तरकरणकार अभावरूप किए निषेकनिके ऊपर जो मिथ्यात्वके निषेक तिनको उदय आबनेको अयोग्य करे है । इत्यादिक क्रियाकरि अनिवृत्तिकरणका अन्तसमयके अनन्तर जिन निषेकनिका अभाव किया था, तिनका उदयकाल आया तब निषेकनि बिना उदय कौनका आवै । तातैं मिध्यात्वका उदय न होने प्रथमोपशम सम्यक्त की प्राप्ति हो है । अनादिमिध्यादृष्टीकै सम्यक्तमोहनीय, मिश्रमोहनीय की सत्ता नाहीं है । ता एक मिथ्यात्वकर्महीको उपशमाय उपशमसम्यग्दृष्टी होय है। बहुरि कोई जीव सम्यक्त पाय पीछे भ्रष्ट हो है, ताकी भी दशा अनादिमिध्यादृष्टीकी सी होय जाय है । यहाँ प्रश्न- जो परीक्षाकारे तत्त्वश्रद्धान किया था, ताका अभाव कैसे होय ? ताका समाधान - जैसे किसी पुरुषको शिक्षा दई, ताकी परीक्षा करि वाकै ऐसे ही है ऐसी प्रतीति भी आई थी, पीछे अन्यथा कोई प्रकारकरि विचार भया, तातैं उस शिक्षाविषे सन्देह भया । ऐसे है कि ऐसे है, अथवा 'न जानों कैसे है, अथवा तिस शिक्षाको झूट जानि तिसर्ते विपरीत भई, तब वाकै प्रतीति न भई, तब वाकै तिस शिक्षा की प्रतीतिका अभाव होय । अथवा पूर्वे तो अन्यथा प्रतीति थी ही, बीचिमें शिक्षा
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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