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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२२ भी घने ही कथन प्रमाणविरुद्ध कहै हैं। जैसे कहै हैं, सर्वार्थसिद्धि के देव मन ही तैं प्रश्न करै हैं, केवली मनही उत्तर दे हैं। सो सामान्य जीव के मन की बात मनःपर्ययज्ञानी बिना जानि सके नाहीं। केवलीके मन की सर्वार्थसिद्धि के देव कैसे जाने? बहुरि केवलीकै भावमनका तो अभाव है, द्रव्यमन जड़ आकारमात्र है, उत्तर कौन दिया। तात मिथ्या है। ऐसे अनेक प्रमाणविरुद्ध कथन किए हैं, तातै तिनके आगम कल्पित जानने। केवली के आहार-नीहार का निराकरण बहुरि ते श्वेताम्बर मतवाले देव गुरु धर्मका स्वरूप अन्यथा निरूपै है। तहाँ केवलीकै क्षुधादिक दोष कहै । सो यहु देवका स्वरूप अन्यथा है। काहे तँ, क्षुधादिक दोष होते आकुलता होय, तब अनन्त सुख कैसे बनै? बहुरि जो कहोगे, शरीर को क्षुधा लागै है, आत्मा तद्रूप न हो है, तो क्षुधादिकका उपाय आहारादिक काहेको ग्रहण किया कहो हो। क्षुधादिरि पीड़ित होय, तब ही आहार ग्रहण करें। बहारे कहोगे, जैसे कर्मोदयते विहार हो है, तैसे ही आहार ग्रहण हो है । सो विहार तो विहायोगति प्रकृतिका उदय ते हो है अर पीडाका उपाय नहीं अर बिना इच्छा भी किसी जीवकै होता देखिए है। बहुरि आहार है सो प्रकृतिका उदयतें नाहीं, क्षुधाकरि पीड़ित भए ही ग्रहण करै है। बहुरि आत्मा पवनादिको प्रेरै तब ही निगलना हो है, तातै बिहारबत आहार नाहीं। जो कहोगे- सातावेदनीयके उदयतें आहार ग्रहण हो है, से बने नाहीं। जो जीब क्षुधादिकरि पीड़ित होय, पीछै आहारादिक ग्रहणः सुख मानै, ताकै आहारादिक साताके उदयतें कहिए। आहारादिका ग्रहण साता वेदनीयका उदयतै स्वयमेव होय, ऐसे तो है नाहीं । जो ऐसे होय तो साता वेदनीय का मुख्य उदय देवनिके है, ते निरन्तर आहार क्यों न करै। बहुरि महामुनि उपवासादि करै तिनकै साताका भी उदय अर निरन्तर भोजन करनेवालों के असाताका भी उदय सम्भवै तातें जैसे बिना इच्छा विहायोगतिके उदयतें विहार सम्भवे, तैसे बिना इच्छा केवल सातावेदनीय ही के उदयतें आहारका ग्रहण सम्भवै नाहीं। __वहरि वे कहै हैं सिद्धान्त विषै केवली के क्षुधादिक ग्यारह परीषह कहै हैं, तातें तिनकै क्षुधाका सद्भाव सम्भवै है। बहुरि आहारादिक बिना तिनकी उपशांतता कैसे होय, तातै तिनकै आहारादिक मानै है। ताका समाधान- कर्मप्रकृतिनिका उदय मंद तीव्र भेद लिए हो है। तहाँ अतिमंद उदय होते तिस उदयजनित कार्य की व्यक्तता भासै नाहीं। तातें मुख्यपने अभाव कहिए, तारतम्यविष सद्भाव कहिए। जैसे नबम गुणस्थान विषे वेदादिकका उदय मन्द है, तहां मैथुनादि क्रिया व्यक्त नाहीं, तातै तहाँ ब्रह्मचर्य ही कह्या। तारतम्य विधै मैथुनादिकका सद्भाव कहिए है। तैसे केवलीकै असाताका उदय अति मंद है। जाते एक-एक कांडकविथै अनन्तवें भाग अनुभाग रहै, ऐसे बहुत अनुभागकांडकनि करि वा गुणसंक्रमणादिककरि सत्ता विषै असातावेदनीयका अनुभाग अत्यन्त मंद भया, ताका उदय विषै क्षुधा ऐसी व्यक्त होती नाहीं जो शरीरको क्षीण करै। अर मोहके अभावतें क्षुधादिक जनित दुःख भी नाहीं, तात क्षुधादिकका अभाव कहिए । तारतम्यविषै तिनका सद्भाव कहिए है। बहुरि तें कह्या-आहारादिक बिना तिनकी उपशांतता कैसे होय, सो आहारादिकरि उपशांत होने योग्य क्षुधा लागै तो मन्द उदय काहेका रह्या? देव भोगभूमियाँ आदिकके किंचित
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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