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________________ पाँचवा अधिकार - १२३ मंद उदय होते ही बहुत काल पीछे किंचित आहार ग्रहण हो है तो इनकै तो अतिमंद उदय भया है, तात इनकै आहारका अभाव सम्भव हैं। बहुरि वह कहै है, देव भोगभूमियोंका तो शरीर ही वैसा है जाको भूख थोरी वा घने काल पीछे लागे, इनिका तो शरीर कर्मभूमिका औदारिक है। ता” इनका शरीर आहार विना देशोनकोटि पूर्व-पर्यन्त उत्कृष्टपने कैसे रहै? ताका समाधान- देवादिकका भी शरीर वैसा है, सो कर्मके ही निमित्ततें है। यहाँ केवलज्ञान भए ऐसा ही कर्म उदय भया, जाकरि शरीर ऐसा भया, जाकी भूख प्रगट होती ही नाहीं। जैसे केवलज्ञान भए पहले केश नख बधै थे, अब बधै (ब) नाहीं। छाया होती थी सो होती नाहीं। शरीर विषै निगोद थी, ताका अभाव भया। बहुत प्रकारकरि जैसे शरीर की अवस्था अन्यथा भई, तैसे आहार विना ही शरीर जैसा का तैसा रहै ऐसी भी अवस्था भई। प्रत्यक्ष देखो, औरनिको जरा व्यापै तब शरीर शिथिल होय जाय, इनका आयुका अन्तपर्यन्त शरीर शिथिल न होय । तातै अन्य मनुष्यनिका अर इनका शरीर की समानता सम्भव नाहीं । बहुरि जो तू कहेगा-देवादिककै आहार ही ऐसा है जाकरि बहुत काल की भूख मिटै, इनकै भूख काहे से मिटी अर शरीर पुष्ट कैसे रह्या? तो सुनि, असाताका उदय मंद होनेनै मिटी अर समय-समय परम औदारिक शरीर वर्गणा का ग्रहण हो है सो वह नोकर्म आहार है सो ऐसी-ऐसी वर्गणा का ग्रहण हो है जाकरि क्षुधादिक व्याय नाही वा शरीर शिथिल होय नाही, सिद्धान्तविषै याही की अपेक्षा केवली को आहार कह्या है। अर अन्नादिकका आहार तो शरीर की पुष्टता का मुख्य कारण नाहीं । प्रत्यक्ष देखो, कोऊ थोरा आहार ग्रहै, शरीर पुष्ट बहुत होय; कोऊ बहुत आहार ग्रहै, शरीर क्षीण रहै । बहुरि पवनादि साधनेवाले बहुत काल ताई आहार न लें, शरीर पुष्ट रह्या करै वा ऋद्रिधारी मुनि उपवासादि करै, शरीर पुष्ट बन्या रहै । सो केवलीकै तो सर्वोत्कृष्टपना है उनकै अन्नादिक बिना शरीर पुष्ट बन्या रहै तो कहा आश्चर्य मया। बहुरि केवली कैसे आहारको जॉय, कैसे याचें। बहुरि वे आहारको जांय, तब समवसरण खाली कैसे रहै। अथवा अन्यका ल्याय देना ठहरावोगे तो कौन ल्याय दे, उनके मन की कौन जानै । पूर्व उपवासादिककी प्रतिज्ञा करी थी, ताका कैसे निर्वाह होय। जीव अन्तराय सर्व प्रतिभासै, कैसे आहार ग्रहैं? इत्यादि विरुद्धता भासै हैं। बहुरि वे कहै हैं- आहार ग्रहै है, परन्तु काहूको दीसै नाहीं। सो आहार-ग्रहणको निंद्य जान्या, तब ताफा न देखना अतिशयविषै लिख्या। सो उनकै निंद्यपना रह्या अर और न देखे हैं तो कहा भया। ऐसे अनेक प्रकार विरुद्धता उपजै है।" बहुरि अन्य अविवेकताकी बातें सुनो- केवलीकै नीहार कहै हैं, रोगादिक भया कहै हैं अर कहें १. केवली के आहार (कवलाहार) का खण्डन विस्तार से जानने हेतु ये ग्रन्थ भी देखने चाहिए - षड्दर्शनसमुच्चय ४६ प्रकरण ७८ पृ. २०४-५, थवल २/४४८, प्रवचनसार २० ता. दृ., गो. क. गाथा २७३, धवल १३/५३, गो.क. १६, योगमार्ग २८, रा. वार्तिक २/४/३/१०६, सार्थसिद्धि २/३, गो.क. २७५, धवल २/४३७, बृहज्जिनोपदेश पृ. २३६ से २४४, ७४३ या शंका-समाधान आदि।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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