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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-१२४ काहुनै तेजोलेश्या छोरी, ताकरि वर्द्धमानस्वामीकै पेलूंगा का (पेचिसका) रोग भया, तारि बहुत बार नीहार होने लगा। सो तीर्थंकर केवलीकै भी ऐसा कर्मका उदय रह्या अर अतिशय न भया, तो इन्द्रादिकरि पूज्यपना कैसे शोभै । बहुरि नीहार कैसे करे, कहाँ करे, कोऊ संभक्ती बातें नाहीं। बहुरि जैसे रागादि युक्त छमस्थक क्रिया होय, तैस केवलोक किया ठहरा है। वर्द्धमान स्वामी का उपदेश विषै 'हे गौतम' ऐसा बारम्बार कहना ठहरावै है, सो उनकै तो अपना कालविधै सहज दिव्यध्वनि हो है, तहाँ सर्वको उपदेश हो है, गौतम को संबोधन कैसे बने? बहुरि केवलीकै नमस्कारादिक क्रिया ठहराव है, सो अनुराग बिना वंदना संभवै नाहीं। बहुरि गुणाधिकको वेदना संभवै, उन सेती कोई गुणाधिक रह्या नाहीं। सो कैसे बने? बहुरि ह्याटिविर्ष समवसरण उतरया कहै, सो इन्द्रकृत समवसरण हाटिविर्ष कैसे रहै? इतनी रचना तहाँ कैसे समावै । बहुरि हाटि विष काहेको रहै? कहा इन्द्र हाटि सारिखी रचना करने को भी समर्थ नाहीं । जाते हाटिका आश्रय लीजिए। बहुरि कहै-केवली उपदेश देने को गए। सो घरि जाय उपदेश देना अति राग” होय, सो मुनिक भी संभवै नाहीं। केवलीकै कैसे बनै? ऐसे ही अनेक विपरीतता तहां प्ररूप हैं। केवली शुद्ध केवलज्ञानदर्शनमय रागादि रहित भए हैं, तिनकै अघातिनिके उदयतें संभवती क्रिया कोई हो है। केवलीकै मोहादिकका अभाव भया है तात उपयोग मिलै जो क्रिया होय सकै, सो संभव नाहीं । पाप प्रकृति का अनुभाग अत्यन्त मंद भया है। ऐसा मंद अनुभाग अन्य कोईकै नाहीं । तातै अन्यजीवनिक पापउदयतें जो क्रिया होती देखिए है, सो केवलीकै न होय । ऐसे केवली भगवानकै सद्भाव कहि देव का स्वरूप को अन्यथा प्ररूप है। मुनि के वस्त्रादि उपकरणों का प्रतिषेध बहुरि गुरु का स्वरूपको अन्यथा प्ररूपै है मुनि के वस्त्रादिक चौदह उपकरण' कहै है। सो हम पूछे हैं, मुनिको निर्ग्रन्थ कहै अर मुनिपद लेते नवप्रकार सर्वपरिग्रहका त्यागकरि महाव्रत अंगीकार करे, सो ए वस्त्रादिक परिग्रह है कि नाहीं। जो है तो त्याग किए पीछे काहेको राखै अर नाहीं हैं तो वस्त्रादिक गृहस्थ राखै ताको भी परिग्रह मति कहो। सुवर्णादिकहीको परिग्रह कहो। बहुरि जो कहोगे, जैसे क्षुधा के अर्थि आहार ग्रहण कीजिए है, तैसे शीत उष्णादिक के अर्थि वस्त्रादिक ग्रहण कीजिए हैं। सो मुनिपद अंगीकार करतें आहार का त्याग किया नाही, परिग्रह का त्याग किया है। बहुरि अन्नादिकका तो संग्रह करना परिग्रह है, भोजन करने जाइये सो परिग्रह नाहीं। अर वस्त्रादिक का संग्रह करना वा पहरना सर्व ही परिग्रह है, सो लोकविषै प्रसिद्ध है। बहुरि कहोगे, शरीर की स्थिति के अर्थि वस्त्रादिक राखिए है-ममत्व नाहीं है, ताते इनको परिग्रह न कहिए है। सो श्रद्धानविषै तो जब सम्यग्दृष्टि भया तब ही समस्त परद्रव्यविषै ममत्व का अभाव भया। तिस अपेक्षा चौथा गुणस्थान ही परिग्रह रहित कहो। अर प्रवृत्तिविष ममत्व नाहीं तो कैसे ग्रहण करै है। तार्तं वस्त्रादिक ग्रहण-थारण छूटेगा, तब ही निःपरिग्रह होगा। बहुरि कहोगे वस्त्रादिकको कोई लेय जाय तो क्रोध न करै वा क्षुधादिक लागै तो वे बेचे नाही वा वस्त्रादिक पहरि प्रमाद कर नाही, १. पात्र १ पात्रबन्ध २ पात्र केसरिकर ३ पटलिकाएँ ४-५ रनस्त्राग ६ गोच्छक ७ रनोहरण ८ मुखयस्त्रिका ६ दो सूती कपड़े १०-११ एक ऊनी कपड़ा १२ मात्रक १३ चोलपट्ट १४, देखो वृहत्कल्प. सू. उ. ३ भा. गा. ३९६२ से ३६६५ तक।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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