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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक - ६६ संकोच विस्तार होय । यहु सबको एक मानि मैं स्थूल हूँ, मैं कृश हूँ, मैं बालक हूँ मैं वृद्ध हूँ, मेरे इन अंगनिका भंग भया है इत्यादि रूप माने है । बहुरि शरीर की अपेक्षा गतिकुलादिक होइ तिनको अपने मानि मैं मनुष्य हूँ, मैं तिर्यंच हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ इत्यादि रूप माने है। बहुरि शरीरसंयोग होने छूटने की अपेक्षा जन्म-मरण होय तिनको अपना जन्म मरण मानि मैं उपज्या, मैं मरूंगा ऐसा माने है। बहुरि शरीर ही की अपेक्षा अन्य वस्तुनिस्यों नाता माने है। जिनकरि शरीर निपज्यातिनको अपने माता-पिता माने है। जो शरीरको रमायै ताको अपनी रमणी माने है। जो शरीरकरि निपज्या ताको अपना पुत्र माने है । जो शरीरको उपकारीताको मित्र माने है। जो शरीर का बुरा करै ताको शत्रु माने है इत्यादिरूप मानि हो है । बहुत कहा कहिए जिस तिस प्रकारकरि आप अर शरीरको एक ही माने है । इन्द्रादिक का नाम तो इहां का है। या तो किछू गम्य नाहीं । अचेत हुआ पर्यायविषे अंहबुद्धि धारे है। सो कारण कहा है? सो कहिए I इस आत्माकै अनादि इन्द्रियज्ञान है ताकरि आप अमूर्तीक है सो तो भासै नाहीं अर शरीर मूर्तीक है सो ही भासे । अर आत्मा काहूको आपो जानि अहंबुद्धि धारे ही धारै सो आप जुदा न भास्या तब तिनका समुदायरूप पर्यायविषै ही अहंबुद्धि थारै है । बहुरि आपकै अर शरीरकै निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध घना ताकरि भिन्नता भासै नाहीं । बहुरि जिस विचारकरि भिन्नता भासै सो मिध्यादर्शनके जोर तैं होइ सके नाहीं तालेँ पर्याय ही विषै अहंबुद्धि पाइए है। बहुरि मिथ्यादर्शनकरि यहु जीव कदाचित् बाह्य सामग्रीका संयोग हो तिनको भी अपनी माने है। पुत्र, स्त्री, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, मन्दिर, किंकरादिक प्रत्यक्ष आपत भिन्न अर सदा काल अपने आधीन नाहीं, ऐसे आपको भासै तो भी तिन विषै ममकार करे हे पुत्रादिकविषै ए हैं सो मैं ही हूँ, ऐसी भी कदाचित् भ्रमबुद्धि हो है । बहुरि मिथ्यादर्शन शरीरादिकका स्वरूप अन्यथा ही भारी है। अनित्यको नित्य मानै, भिन्नको अभिन्न मार्ने, दुःख के कारणको सुखका कारण माने, दुःखको सुख माने इत्यादि विपरीत भासे है। ऐसे जीव अजीव तत्त्वनिका अयथार्थज्ञान होर्ते अयथार्थ श्रद्धान हो है । बहुरि इस जीवकै मोहके उदयतें मिध्यात्व कषायादिक भाव हो हैं। तिनको अपना स्वभाव माने है, कर्म उपाधिर्ते भए न जाने है। दर्शन ज्ञान उपयोग अर ए आस्रवभाव तिनको एक मान है। जातैं इनका आधारभूत तो एक आत्मा अर इनका परिगमन एकै काल होइ, तार्ते याको भिन्नपनो न भासै अर भिन्नपनो भासनेका कारण जो विचार है सो मिथ्यादर्शनके बलतें होइ सकै नाहीं । बहुरि ए मिथ्यात्व कषायभाव आकुलता लिये हैं, तातें वर्तमान दुःखमय हैं अर कर्मबंधके कारण हैं, तातें आगामी दुःख उपजावेंगे, तिनको ऐसे न माने है। आप भला जानि इन भावनिरूप होइ प्रवर्ते है । बहुरि यह दुःखी तो अपने इन मिध्यात्व कषायभावनित होइ अर वृथा ही औरनिको दुःख उपजावनहारे माने है। जैसे दुःखी तो मिध्यात्वश्रद्धानते / होइ अर अपने श्रद्धानके अनुसार जो पदार्थ न प्रवर्ते ताको दुःखदायक माने । बहुरि दुःखी तो क्रोध होइ। अर जासों को किया होय ताको दुःखदायक मानै । दुःखी तो लोभतें होइ अर इष्ट वस्तुकी अप्राप्तिको दुःखदायक मानै, ऐसे ही अन्यत्र जानना । बहुरि इन भावनिका जैसा फल लागे तैसा न मासे है। इनकी तीव्रताकरि नरकादिक हो है, मन्दताकरि स्वर्गादिक हो है। तहां घनी पोरी आकुलता हो है सो भारी नाहीं,
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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