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________________ चौथा अधिकार-६५ अवस्था का आकारादिक विशेषनिकरि श्रद्धान करना अप्रयोजनमूत है। ऐसे ही अन्य जानने । या प्रकार कहे जे प्रयोजनभूत जीवादिक तत्त्व तिनका अयथार्थ श्रद्धान ताका नाम मिथ्यादर्शन जानना । अब संसारी जीवनिकै मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति कैसे पाइए है सो कहिए है। इहाँ वर्णन तो श्रद्धानका करना है परन्तु जानै तब श्रद्धान करे, तातें जानने की मुख्यताकरि वर्णन करिए है। मिथ्यादर्शनकी प्रवृत्ति अनादित जीव है सो कर्मके निमित्तते अनेक पर्याय धरै है तहाँ पूर्व पर्यायको छोरै नवीन पर्याय घरै, बहुरि वह पर्याय है सो एक तो आप आत्मा अर अनन्त पुद्गलपरमाणमय शरीर तिनका एक पिंड बंधानरूप है। बहुरि जीवकै तिस पर्यायविष यह मैं हूँ, ऐसे अहंबुद्धि हो है। बहुरि आप जीव है ताका स्वभाव तो ज्ञानादिक है अर विभाव क्रोधादिक है अर पुद्गल परमाणुनिके वर्ण गंध रस स्पर्शादि स्वभाव है तिन सबनिको अपना स्वरूप मान है। ए मेरे हैं, ऐसे मम बुद्धि हो है। बहरि आप जीव है ताके ज्ञानादिककी वा क्रोधादिककी अधिक हीनतारूप अवस्था हो है अर पुद्गलपरमाणुनिकी वर्णादि पलटने रूप अवस्था हो है तिन सबनिको अपनी अवस्था माने है। ए मेरी अवस्था है, ऐसे मम बुद्धि करै है बहुरि जीवकै अर शरीरकै निमित्त-नैमित्तिक संबंध है तातें जो क्रिया हो है ताको अपनी मान है। अपना दर्शनशानस्वभाव है, ताकी प्रवृत्तिको निमित्त मात्र शरीरका अंगरूप स्पर्शनादि द्रव्यइन्द्रिय है यहु तिनको एक मान ऐसे मान है जो हस्तादि स्पर्शनकरि मैं स्पा, जीभकरि चाख्या, नासिकाकरि सुंघ्या, नेत्रकरि देख्या, काननिकरि सुन्या, ऐसे मान है। मनोवर्गणारूप आठ पाँखुडीका फूल्या कमल के आकार हृदय स्थानविषै द्रव्यमन है, दृष्टिगम्य नाहीं ऐसा है सो शरीर का अंग है, ताका निमित्त भए स्मरणादिरूप ज्ञान की प्रवृत्ति हो है। यहु द्रव्यमनको अर ज्ञानको एक मानि ऐसे मान है कि मैं मनकरि जान्या। बहुरि अपने बोलने की इच्छा हो है तब अपने प्रदेशनिको जैसे बोलना बनै तैसे हलावै, तब एकक्षेत्रांवगाह सम्बन्थते शरीर के अंग भी हाले, ताके निमित्तत भाषा वर्गणारूप पुद्गल वचनरूप परिणमै। यहु सबको-एक मानि ऐसे मानै जो मैं बोलूं हूं। बहुरि अपने गमनादि क्रियाकी वा वस्तुग्रहणादिक की इच्छा होय तब अपने प्रदेशनिको जैसे कार्य बने तसे हलावै, तब एकक्षेत्रावगाह शरीर के अंग हालै तब यह कार्य बने। अथवा अपनी इच्छा बिना शरीर हाले तब अपने प्रदेश भी हालै, यह सबको एक मानि ऐसे माने, मैं गमनादि कार्य करूँ हूँ वा वस्तु ग्रहूं हूँ था मैं किया है इत्यादिरूप माने है। बहुरि जीवकै कषायभाव होय तब शरीरकी ताके अनुसार चेष्टा होइ जाय । जैसे क्रोयादिक भए नेत्रादि रक्त होइ जाय, हास्यादि भए प्रफुल्लित वदनादि होइ जाय, पुरुषवेदादि भए लिंगकाठिन्यादि होइ जाय। यह सबको एक मानि ऐसा माने कि ए सर्व कार्य मैं करूं हूँ। बहुरि शरीर विषे शीत उष्ण भुथा तृषा रोग इत्पादि अवस्था हो है ताके निमित्ततै मोहभावकरि आप सुख-दुःख माने। इन सबनि को एक जानि शीतादिकको या सुख-दुःख को अपने ही भए मान है। बहुरि शरीरका परमाणूनिका मिलना बिछुरनादि होनेकरि या तिनकी अवस्था पलटनेकरि वा शरीर स्कंध का खंडादि होनेकरि स्थूल कृशादिक वा बाल वृद्धादिक वा अंगहीनादिक होय अर ताके अनुसार अपने प्रदेशनिका
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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