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________________ चौथा अधिकार-६७ तातें बुरे न लागै है ! कारण कहा है- गा आपके किसे भामै तिनको बुरे कैसे मानै? बहुरि ऐसे ही आस्रव सत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है। बहुरि इन आसवभावनिकरि ज्ञानावरणादिकर्मनिका बंध हो है। तिनका उदय होते ज्ञान-दर्शन का हीनपना होना, मिथ्यात्वकषायरूप परिणमन, चाह्या न होना, सुख-दुःखका कारन मिलना, शरीर संयोग रहना, गतिजाति शरीरादिकका निपजना, नीचा ऊँचा कुल पावना होय। सो इनके होनेविषे मूल कारन कर्म है। ताको तो पहिचान नाही, जाते यहु सूक्ष्म है, याको सूझता नाहीं । अर वह आपको इन कार्यनिका कर्ता दीसै नाहीं, तातै इनके होनेविष के तो आपको कर्ता माने, के काहू और को कर्त्ता मान। अर आपका का अन्यका कर्त्तापना न भासै तो गहलरूप होइ भवितव्य पानै। ऐसे बंधतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है। बहुरि आम्रवका अभाव होना सो संवर है। जो आस्रवको यथार्थ न पहिचाने, ताफै संवरका यथार्थ श्रद्धान कैसे होइ? जैसे काहूकै अहित आचरण है, वाकों वह अहित न भासै तो ताकै अभावको हितरूप कैसे मान? तैसे ही जीवकै आम्रव की प्रवृत्ति है। याको यहु अहित न भासे तो ताकै अभावरूए संवरको कैसे हित मानै । बहुरि अनादित इस जीवकै आस्रवभाव ही भया, संवर कबहू न भया, ता” संवर का होना भास नाहीं। संवर होते सुख हो है सो मासै नाहीं। संवरते आगामी दुःख न होसी सो भासै नाहीं। तातें आस्रवका तो संवर करै नाहीं अर तिन अन्य पदार्थनिको दुःखदायक मानै है। तिनहीके न होने का उपाय किया करै है सो वे अपने आधीन नाहीं, वृथा ही खेदखिन्न हो है। ऐसे संवर तत्त्वका अयथार्थ श्रद्धान हो है। बहुरि बंध का एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बंधको यथार्थ न पहिचान, ताकै निर्जराका यथार्थ श्रद्धान कैसे होय? जैसे भक्षण किया हुवा विष आदिकतै दुःख होना न जानै तो ताके उषालों का उपायको कैसे भला जानै । तैसे बंधनरूप किए कर्मनित दुःख होना न जाने तो तिनकी निर्जरा का उपाय को कैसे भला जाने। बहुरि इस जीयकै इन्द्रियनित सूक्ष्मरूप जे कर्म तिनका तो ज्ञान होता नाहीं। बहुरि तिनविषै दुःखकू कारणभूत शक्ति है ताका ज्ञान नाहीं। तातै अन्य पदार्थनिहीके निमित्तको दुःखदायक जानि तिनके ही अभाव करनेका उपाय करै है सो वे अपने आधीन नाहीं। बहुरि कदाचित् दुःख दूरि करनेके निमित्त कोई इष्ट संयोगादि कार्य बने है सो वह भी कर्मके अनुसार बने है। तातै तिनका उपायकरि वृथा ही खेद करै है। ऐसे निर्जरातत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होते अयथार्थ श्रद्धान हो है ! ___ बहुरि सर्व कर्मबंधका अभाव ताका नाम मोल है। जो बंथको वा बंधजनित सर्व दुःखनिको नाहीं पहिचान, ताके मोक्षका यथार्थ श्रद्धान कैसे होइ । जैसे काहूकै रोग है, वह तिस रोगको वा रोगजनित दुःखको न जानै तो सर्वथा रोग के अभावको कैसे मला जानै? तैसे याकै कर्मबन्धन है, यहु तिस बंधनको या बंधजनित दुःखको न जानै तो सर्वथा बंधके अभावको कैसे भला जाने? बहुरि इस जीवके कर्मका वा तिनकी शक्तिका तो ज्ञान नाही, ताक् बाह्यपदार्थनिको दुःखका कारन जानि तिनके सर्वथा अभाव करनेका उपाय करे * नष्ट करना
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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