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________________ मौलिक रचनाएँ १. अर्थसंदृष्टि, २. आध्यात्मिक पत्र, ३. गोम्मटसारपूजा और ४. मोक्षमार्ग प्रकाशक । इल समस्त रचनाओं में मोक्षमार्गप्रकाशक सबसे महत्वपूर्ण है । यह ९ अध्यायों में विभक्त है और इसमें जैनागम का सार निबद है। इस ग्रंथ के स्वाध्याय से आगम का सम्यग्जान प्राप्त किया जा सकता है। इस ग्रंथ के प्रथम अधिकार में उत्तम सुख प्राप्ति के लिए परम इष्ट अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साथु का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है। पंचपरमेष्ठी का स्वरूप समझने के लिए यह अधिकार उपादेय है। द्वितीय अधि कार में संसारावस्था का स्वरूप वर्णित है । कर्मबन्धन का निदान, कर्मों के अनादिपन की सिद्धि, जीव-कर्मों की भिन्नता एवं कचित् अभिन्नता, योग से होनेवाले प्रकृति-प्रदेशबन्ध, कषाय से होनेवाले स्थिति और अनुभाग बन्ध, कर्मों के फलदान में निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध, द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरूप, जीव की अवस्था आदि का वर्णन है। तृतीय अधिकार में संसार-दुःख तथा मोक्षसुख का निरूपण किया गया है। दुःखों का मूल कारण मिथ्यात्य और मोहजनित विषयाभिलाषा है । इसी से चारों गतियों में दुःख की प्राप्ति होती है । चौथे अधिकार में मिध्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निरूपण किया गया है । इष्ट-अनिष्ट की मिथ्याकल्पना राग-द्वेष की प्रवृत्ति के कारण होती है; जो इस प्रवृत्ति का त्याग करता है उसे सुख की प्राप्ति होती है । पंचम अधिकार में विविधमत-समीक्षा है । इस अध्याय से पं. टोडरमल के प्रकाण्ड पाण्डित्य और उनके विशाल ज्ञानकोश का परिचय प्राप्त होता है । इस अध्याय से यह स्पष्ट है कि सत्यान्वेषी पुरुष विविध मतों का अध्ययन कर अनेकान्तबुद्धि के द्वारा सत्य प्राप्त कर लेता है । बल अधिकार में सत्यतातिरोधी असन्यायतनों के पसरूप का विस्तार बतलाया गया है। इसमें यही बतलाया गया है कि मुक्ति के पिपासु को मुक्तिविरोधी तत्वों का कभी सम्पर्क नहीं करना चाहिए । मिथ्यात्वभाव के सेवन से सत्य का दर्शन नहीं होता । सप्तम अधिकार में जैन मिथ्यादृष्टि का विवेचन किया है। जो एकान्त मार्ग का अबलम्बन करता है वह ग्रंथकार की दृष्टि में मिथ्याइष्टि है। रागादिक का घटना निर्जरा का कारण है और रागादिक का होना बन्ध का । जैनाभास, व्यवहाराभास के कथन के पश्चात्, तत्त्व और ज्ञान का स्वरूप बतलाया गया है । अष्टम अधिकार में आगम के स्वरूप का विश्लेषण किया है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रष्यानुयोग और चरणानुयोग के स्वरूप और विषय का विवेचन किया गया है । नवम अधिकार में मोक्षमार्ग का स्वरूप, आत्महित, पुरुषार्थ से मोक्षप्राप्ति, सम्यक्त्व के भेद और उसके आठ अंग आदि का कथन आया है । इस प्रकार पं. टोडरमल ने मोक्षमार्गप्रकाशक में जैनतत्त्वज्ञान के समस्त विषयों का समावेश किया है । यद्यपि उसका मूल विषय मोक्षमार्ग का प्रकाशन है। किन्तु प्रकारान्तर से उसमें कर्मसिद्धान्त, निमित्त-उपादान, स्याद्वाद-अनेकान्त, निश्चय-व्यवहार, पुण्य-पाप, देव और पुरुषार्थ पर तात्त्विक विवेचना निबद्ध की गयी है। रहस्यपूर्ण चिट्ठी में पं. टोडरमल ने अध्यात्मवाद को ऊँची बातें कही हैं । मविकल्प के द्वारा निर्विकल्पक परिणाम होने का विधान करते हुए लिखा है "वही सम्यकवी कदाचित् स्वरूप ध्यान करने को उद्यमी होता है, वहाँ प्रथम भेदविज्ञान स्वपर का करे, नोकर्म-द्रध्यकर्म-भावकर्म रहित केवल चैतन्यचमत्कारमात्र अपना स्वरूप जाने पश्चात् पर का भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है। वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूप में अहंबुद्धि धरता है । चिदानन्द हूँ शुद्ध हूँ, इत्यादिक विचार होने पर सहज ही आनन्दतरंग उठती है, रोमांच हो आता है, तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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