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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- १५६ पंचाग्नि तापै, सो अग्निकरि बड़े छोटे जीव जलै, हिंसादिक बधै, यामैं धर्म कहा भया । बहुरि औधेमुख झूले, ऊर्ध्व बाहु राखै, इत्यादि साधन करे तहाँ क्लेश ही होय; किछू ए धर्म के अंग नाहीं । बहुरि पवन साधन करे, तहाँ नेती धोती इत्यादि कार्यनिविषै जलादिक कारे हिंसादिक उपजै, चमत्कार कोई उपजै, तातें मानादिक बधै, किछू तहाँ धर्मसाधन नाहीं । इत्यादि क्लेश करे विषयकषाय घटावनेका कोई साधन करे नाहीं । अंतरंग विषै क्रोध मान माया लोभ का अभिप्राय है, वृथा क्लेशकरि धर्म माने है, सो कुधर्म है। आत्मघात से धर्म का निषेध बहुरि केई इस लोक विषै दुःख सह्या न जाय वा परलोकविषै इष्ट की इच्छा वा अपनी पूजा बढ़ावने के अर्थि वा कोई क्रोधादिकरि अपघात करै। जैसे पतिवियोग अग्निविषै जलकरि सती कहावे है। या हिमालय गलै है, काशीकरोत ले है, जीवित मांही ले है, इत्यादि कार्यकरि धर्म माने है। सो अपघातका तो बड़ा पाप है। जो शरीरादिकर्ते अनुराग घट्या था तो तपश्चरणादि किया होता, मरि जाने में कौन धर्म का अंग भया। तातैं अपघात करना कुधर्म है। ऐसे ही अन्य भी घने कुधर्मके अंग हैं। कहाँ ताई कहिए, जहाँ विषय व र क मानिए, सो सर्व कुछ जानने । जैनधर्म में कुधर्म-प्रवृत्ति का निषेध देखो कालका दोष, जैनधर्म विषे भी कुधर्मकी प्रवृत्ति भई। जैनमतविषे जे धर्मपर्व कहे हैं, तहाँ तो विषय कषाय छोरि संयमरूप प्रवर्त्तना योग्य है। ताको तो आदरे नाहीं अर व्रतादिकका नाम धराय तहाँ नाना शृंगार बनावै था इष्ट भोजनादि करै वा कुतूहलादि करे वा कषाय बधायनेके कार्य करै, जूदा इत्यादि महापाप रूप प्रवर्ते । पापका बहुरि पूजनादि कार्यनिविषै उपदेश तो यहु था 'सावद्यलेशो बहुपुष्यराशी दोषाय नालं" अंश बहुत पुण्य समूहविषै दोषके अर्थ नाहीं । इस छलकरि पूजाप्रभावनादि कार्यनिविषै रात्रि वि दीपकादिकरि वा अनन्तकायादिकका संग्रहकरि वा अयत्नाचार प्रवृत्तिकरि हिंसादिरूप पाप तो बहुत उपजावै अरस्तुति भक्ति आदि शुभ परिणामनिविषै प्रवर्ते नाहीं वा थोरे प्रवर्ते, सो टोटा घना नफा थोरा वा नफा किछू नाहीं। ऐसा कार्य करने में तो बुरा ही दीखना होय । बहुरि जिनमंदिर तो धर्मका ठिकाना है। तहाँ नाना कुकथा करनी, सोयना इत्यादिक प्रमाद रूप प्रवर्ते या तहाँ बाग-बाड़ी इत्यादि बनाय विषयकषाय पोषै। बहुरि लोभी पुरुषनिको गुरु मानि दानादिक दें या तिनकी असत्य स्तुतिकरि महंतपनो मानै, इत्यादि प्रकार करि विषयकषायनिको तो बधादें अर धर्म माने । सो जिनधर्म तो वीतरागभावरूप है। तिस विषै ऐसी विपरीत प्रवृत्ति कालदोषतें ही देखिए है। या प्रकार कुधर्म सेवन का निषेध किया। १. पूज्यं जिनं त्यार्चयतो जनस्य, सावद्यलेशोबहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य, न दूषिका शीतशिवाम्बुराशी ।। - बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र ॥ ५८ ॥
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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