SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा अधिकार-१५५ व्यतीपातादिक (श्राद्ध) विषै दान दे वा खोटा ग्रहादिक के अर्थि दान दे, बहुरि पात्र जानि लोभी पुरुषनिको दान दे, बहुरि दान देनेविष सुवर्ण हस्ती घोड़ा तिल आदिक वस्तुनिको दे, सो संक्रांति आदि पर्व धर्मरूप नाहीं। ज्योतिषी संचारादिककरि संक्रांतिआदि हो है। बहुरि दुष्टग्रहादिकके अर्थि दिया, सो तहाँ भय लोभादिकका आधिक्य भया। तातें तहाँ दान देनेमें धर्म नाहीं । बहुरि लोभी पुरुष देने योग्य पात्र नाहीं । जातें लोभी नाना असत्ययुक्ति करि ठिगे हैं। किछु मला करते नाहीं। भला तो तब होय, जब याका दान का सहाय करि वह धर्म साथै । सो वह तो उलटा पापरूप प्रवर्त। पापका सहाईका भला कैसे होय? सो ही रयणसार शास्त्रविषे कह्या है सप्पुरिसाणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा। लोहीणं दाणं जइ विमाणसोहा - सयं जाणे।।२६।। याका अर्थ- सत्पुरुषनिको दान देना कल्पवृक्षनिके फलनिकी शोभा समान है, शोभा भी है अर सुखदायक भी है बहुरि लोभी पुरुषनिको दान देना जो होय, सो शव जो मस्या ताका विमान जो चकडोल ताकी शोभा समान जानहु । शोभा तो होय परन्तु धनीको परम दुःखदायक हो है। तातै लोभी पुरुषनिको दान देनेमें धर्म नाहीं, बहुरि द्रव्य तो ऐसा दीजिए, जाकरि वार्क धर्म बधै । सुवर्ण हस्तीआदि दीलिए, तिनिकर हिंसादिक उपजे वा मान लोमादिक बधै। ताकरि महापाप होय। ऐसी वस्तुनिका देने वाला को पुन्य कैसे होय। बहुरि विषयासक्त जीव रतिदानादिकविर्ष पुण्य ठहराव है। सो प्रत्यक्ष कुशीलादिक पाप जहाँ होय, तहाँ पुण्य कैसे होय । अर युक्ति मिलावनेको कहै जो वह स्त्री सन्तोष पावै है। तो स्त्री तो विषयसेवन किए सुख पावै ही पाये, शीलका उपदेश काहेको दिया। रतिसमय बिना भी बाका मनोरथ अनुसार न प्रवर्ते दुःख पावै। सो ऐसी असत्य युक्ति बनाय विषयपोषनेका उपदेश दे हैं। ऐसे ही दयादान वा पात्रदान बिना अन्य दान देय धर्म मानना सर्व कुधर्म है। बहुरि ब्रतादिक करिकै तहाँ हिंसादिक वा विषयादिक बधाव है। सो व्रतादिक तो तिनको घटावनेके अर्थि कीजिए है। बहुरि जहाँ अन्नका तो त्याग करै अर कंदमूलादिकनिका भक्षण करै, तहाँ हिंसा विशेष भई- स्वादादिकविषय विशेष भए। बहरि दिवस विषै तो भोजन करै नाहीं अर रात्रिविषै करै। सो प्रत्यक्ष दिवसभोजनौं रात्रिभोजनविषै हिंसा विशेष भासे, प्रमाद विशेष होय। बहुरि व्रतादिकार नाना शृंगार बनावै, कुतूहल करे, जूवा आदि रूप प्रवर्ते, इत्यादि पापक्रिया करै। बहुरि व्रतादिकका फल लौकिक इष्टकी प्राप्ति, अनिष्टका नाशको चाहै, तहाँ कषायनिकी तीव्रता विशेष भई ऐसे व्रतादिकरि धर्म मानै है, सो कुधर्म है। मिथ्या व्रत, भक्ति, तपादि का निषेध बहुरि भक्त्यादिकार्यनिविषै हिंसादिक पाप बधावे वा गीत - नृत्यगानादिक वा इष्ट 'मोजनादिक वा अन्य सामग्रीनिकरि विषयनिको पोषै, कुतूहल प्रमादादिरूप प्रयतै। तहाँ पाप तो बहुत उपजावै अर धर्मका किछू साधन नाही, तहाँ धर्म मानै सो सब कुधर्म है। बहुरि केई शरीरको तो क्लेश उपजावै अर तहाँ हिंसादिक निफ्जायै वा कषायादिरूप प्रयतै। जैसे
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy