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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-४६ है। बहुरि जब अरति जगाने तब अनिष्ट नस्तका संयोग णय महा न्याकुल हो है। अनिष्टका संयोग भया सो आपः सुहावता नाहीं। सो यह पीड़ा सही न जाय तातै ताका वियोग करने को तड़फड़े है सो यह दुःख ही है, वहुरि जव शोक उपजै है तब इष्टका वियोग वा अनिष्टका संयोग होते अतिव्याकुल होइ सन्ताप उपजाये, सेवे, पुकारे, असावधान होइ जाय, अपना अंगघात करि मरि जाय, किछू सिद्धि नाहीं तो भी आपही महादुःखी हो है। बहुरि जब भय उपजे है तब काहू को इष्टवियोग, अनिष्टसंयोगका कारण जानि डरै, अति विहल होइ, भागै वा छिप वा शिथिल होइ जाय, कष्ट होनेके ठिकाने प्राप्त होय वा मरि जाय सो यह दुःख रूपही है। बहुरि जुगुप्सा उपजै है तब अनिष्ट वस्तुसों घृणा करै। ताका तो संयोग भया, आप घृणाकरि भाग्या चाहै, खेदखिन्न होई मैं वाळू दूर किया चाहै, महादुःखको पावै है। बहुरि तीनूं वेदनिकरि जब काम उपजै है तब पुरुषवेदकरि स्वीसहित रमनेकी अर स्त्रीवेदकरि पुरुषसहित रमने की अर नपुंसकवेदकरि दोऊनिस्यों रमनेकी इच्छा हो है। तिसकार अति व्याकुल हो है, आताप उपजे है, निर्लज्ज हो है, धन खर्चे है। अपजसको न गिने है। परम्परा दुःख होइ वा दंडादिक होय ताकों न गिनै है। कामपीड़ाते बाउला हो है, मरि जाय है। सो रसग्रंथनियिर्षे काम की दश दशा कही हैं। तहाँ बाउला होना मरण होना लिख्या है। वैद्यक शास्त्रनिमें ज्वर के भेदनिविषै कामज्वर मरण का कारण लिख्या है। प्रत्यक्ष कामकरि मरणपर्यन्त होते देखिए है। कामांधकै किछू विचार रहता नाहीं। पिता पुत्री वा मनुष्य तियंचणी इत्यादित रमने लगि जाय है। ऐसी काम की पीड़ा सो महादुःखस्वरूप है। या प्रकार कषाय वा नोकषायनिकरि अवस्था हो है । इहाँ ऐसा विचार आवै है जो इन अवस्थानिविष न प्रवर्ते तो क्रोधादिक पीडै अर इनि अवस्थानिविषै प्रवर्ते तो मरण पर्यंत कष्ट होइ। तहाँ भरण पर्यंत कष्ट तो कबूल करिए है अर क्रोधादिककी पीड़ा सहनी कबूल न करिए है। तात यह निश्चय भया जो परणादिकते भी कषायनिकी पीड़ा अधिक है। बहुरि जब याकै कषायका उदय होइ तब कषाय किए बिना रणा जाता नाहीं। बाध कषायनिके कारण आय पिलें तो उनके आश्रय कषाय करै, न मिले तोआप कारण बनाये। जैसे व्यापारादि कषायनिका कारण न होइ तो जुआ खेलना वा अन्य क्रोधादिकके कारण अनेक ख्याल खेलना या दुष्ट कथा कहनी सुननी इत्यादिक कारण बनादै है। बहुरि काम क्रोधादि पीड़े शरीरविर्ष तिनसप कार्य करने की शक्ति न होइ तो औषधि बनावै, अन्य अनेक उपाय करे। बहुरि कोई कारण बने नाही तो अपने उपयोग विष कषायनिको कारणभूत पदार्थनिका चिंतयनकरि आप ही कषायरूप परिणमै। ऐसे यह जीव कषायभावनिकरि पीड़ित हुआ महान् दुःखी हो है। बहुरि जिस प्रयोजनकी लिए कषायभाव भया है तिस प्रयोजनकी सिद्धि होय तो यह मेरा दुःख दूरि होय अर मोर्चे सुख होय, ऐसे विचारि तिस प्रयोजनकी सिद्धि होने के अर्थ अनेक उपाय करना सो तिस दुःख दूर होने का उपाय मान है। सो इहाँ कषायभायनित जो दुःख हो है सो तो सांधा ही है, प्रत्यक्ष आप ही दुःखी हो है। बहुरि यह उपाय करै है सो झूठा है। काहेत सो कहिए है- क्रोध विषै तो अन्यका बुरा करना, मानविष ओरनिकू नीचा करि आप ऊँचा होना, मायाविषे छलकार कार्य सिद्धि करना, लोभविष इष्टका पावना, हास्यविधै विकसित होने का कारण बन्या रहना, रतिदिधै इष्टसंयोग का बन्या रहना, अरतिविष अनिष्टका दूर होना, शोकविषै शोकका कारण मिटना, भययिष भयका मिटना, जुगुप्साविर्ष
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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