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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक-२१६ ताकै बिलाव ही सिंह है। तैसे जो निश्चयको न जाने, ताकै व्यवहार ही निश्चयपणाको प्राप्त हो है। इहाँ कोई निर्विचार पुरुष ऐसे कहै- तुम व्यवहारको असत्यार्थ हेय कहो हो तो हम व्रत शील संयमादि व्यवहार कार्य काहेको करें- सर्व को छोड़ि देवेंगे। ताको कहिए है- किछू व्रत शील संयमादिक का नाम व्यवहार नाहीं है। इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है सो छोड़ि दे। बहुरि ऐसा श्रद्धानकरि जो इनको तो बाह्य सहकारी जानि उपचारतें मोक्षमार्ग कह्या है। ए तो परद्रव्याश्रित हैं। बहुरि सांचा मोक्षमार्ग वीतरागभाव है सो स्वद्रव्याश्रित है। ऐसे व्यवहारको असत्यार्थ हेय जानना। व्रतादिकको छोड़नेते तो व्यवहारका हेयपना होता है नाहीं। बहुरि हम पूछे हैं- व्रतादिकको छोड़ि कहा करेगा? जो हिंसादिरूप प्रवत्तेगा तो तहाँ तो मोक्षमार्ग का उपचार भी सम्मवै नाहीं। तहाँ प्रवर्त्तनेते कहा भला होयगा, नरकादिक पावोगे। ताते ऐसे करना तो निर्विचारपना है। बहुरि व्रतादिकरूप परिणति मेटि केवल वीतराग उदासीन भावरूप होना बनै तो भले ही है। सो नीचली दशाविषै होय सकै नाहीं । ताते व्रतादिसाधन छोड़ि स्वच्छन्द होना योग्य नाहीं। या प्रकार श्रद्धानविषे निश्चयको, प्रवृत्तिविषे व्यवहारको उपादेय मानना सो भी मिथ्याभाव ही है। ___ बहुरि यहु जीव दोऊ नयनिका अंगीकार करनेके अर्थि कदाचित् आपको शुद्ध सिद्धसमान रागादिरहित केवलज्ञानादिसहित आत्मा अनुभव है, ध्यानमुद्रा धारि ऐसे विचारविषै लागै है । सो ऐसा आप नाहीं परन्तु भ्रमत निश्चय करि मैं ऐसा ही है, ऐसा मानि सन्तुष्ट हो है। कदाचित् वचनद्वारि निरूपण ऐसे ही करै हैं। सो निश्चय तो यथावत् वस्तुको प्ररूपै, प्रत्यक्ष आप जैसा नाहीं तैसा आपको मानना, सो निश्चय नाम कैसे पावै। जैसा केवल निश्चयाभासवाला जीवकै पूर्व अयथार्थपना कह्या था, तैसे ही याकै जानना । अथवा यह ऐसे मान है, जो इस नयकरि आत्मा ऐसा है, इस नयकरि ऐसा है। सो आत्मा तो जैसा है तैसा ही है, तिसविषै नयकरि निरूपण करने का जो अभिप्राय है, ताको न पहिचान है। जैसे आत्मा निश्चयकरि तो सिद्धसमान केवलज्ञानादिसहित द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मरहित है, व्यवहारनय करि ससारी मतिज्ञानादिसहित वा द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्मसहित है- ऐसा माने है। सो एक आत्मा के ऐसे दोय स्वरूप तो होय नाहीं। जिस भावहीका सहितपना तिस भावहीका रहितएना एकवस्तुविषे कैसे सम्भवै? तातें ऐसा मानना भ्रम है। तो कैसे है- जैसे राजा रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान है, तैसे सिख संसारी जीवत्यपने की अपेक्षा समान कहे है केवलज्ञानादि अपेक्षा समानता मानिए सो है नाहीं। संसारीकै निश्चयकार मतिज्ञानादिक ही है, सिद्धकै केवलज्ञान है। इतना विशेष है- संसारीकै मतिज्ञानादिक कर्म का निमित्तते हैं ताः स्वभावअपेक्षा संसारीके केवलज्ञानकी शक्ति कहिए तो दोष नाहीं। जैसे रंक मनुष्यकै राजा होने की शक्ति पाईए, तैसे यहु शक्ति जाननी। बहुरि नोकर्म द्रव्यकर्म पुद्गलकरि निपजे हैं तातें निश्चयकरि संसारीकै भी इनका भिन्त्रपना है। परन्तु सिद्धवत् इनका कारण कार्य अपेक्षा सम्बन्ध भी न मानें तो भ्रम ही है। बहुरि भावकर्म आत्माका भाव है, सो निश्चयकरि आत्माहीका है। कर्मके निमित्तत हो हैं, तातै व्यवहारकरि कर्म का कहिए है। बहुरि सिद्धवत् संसारीकै भी रागादिक न मानना, कर्मही का मानना यहु प्रम है। याही प्रकारकारे नयफरि एक ही वस्तुको एक भावअपेक्षा वैसा भी मानना, वैसा भी मानना, सो तो मिथ्याबुद्धि है। बहुरि जुदे-जुदे भावनिकी अपेक्षा नयनिकी प्ररूपणा है, ऐसे मानि यथासंभव वस्तुको मानना सो साँचा
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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