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________________ मोक्षमार्ग प्रकाशक- २०० याका अर्थ- मोक्ष पराङ्मुख ऐसे अतिदुस्तर पंचाग्नि तपनादि कार्य तिनकरि आपही क्लेश करे है तो करो। बहुरि अन्य केई जीव महाव्रत अर तपका भारकरि चिरकालपर्यन्त क्षीण होते क्लेश करे हैं तो करो। परन्तु यहु साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित पद जो आप आप अनुभवमें आवै, ऐसा ज्ञानस्वभाव सो तो ज्ञानगुण बिना अन्य कोई भी प्रकारकरि पावने को समर्थ नाहीं है। बहुरि पंचास्तिकायविषै जहाँ अंतविषै व्यवहाराभास वालेका कथन किया है तहाँ तेरह प्रकार चारित्र होते भी तरका मोक्षमार्गविषे निषेध किया है। बहुरि प्रवचनसारविषै आत्मज्ञानशून्य संयमभाव अकार्यकारी कला है। बहुरि इनही ग्रन्थनिविषै वा अन्य परमात्मप्रकाशादि शास्त्रनिविषै इस प्रयोजन लिए जहाँ तहाँ निरूपण है । तातैं पहले तत्त्वज्ञान भए ही आचरण कार्यकारी है । यहाँ कोऊ जानेगा, बाह्य तो अणुव्रत महाव्रतादि साधै हैं, अंतरंग परिणाम नाहीं वा स्वर्गादिंककी वांछाकर साधे हैं, सो ऐसे साधे तो पापबंध होय । द्रव्यलिंगी मुनि उपरिम ग्रैवेयकपर्यन्त जाय है । परावर्तनिविषै इकतीस सागर पर्यन्त देवायुकी प्राप्ति अनन्तबार होनी लिखी है। सो ऐसे ऊंचेपद तो तब ही पावै जब अंतरंग परिणामपूर्वक महाव्रत पाले, महामंदकषायी होय, इस लोक परलोकके भोगादिकी चाह न होय, केवल धर्मबुद्धिर्ते मोक्षाभिलाषी हुवा साधन साथै । तातें द्रव्यलिंगीकै स्थूल तो अन्यथापनो है नाहीं, सूक्ष्म अन्यथापनो है सो सम्यग्दृष्टीको भारी है। अब इनकै धर्मसाधन कैसे है अर तामें अन्यथापनो कैसे है? सो कहिए है द्रव्यलिंगी के धर्म-साधन में अन्यथापना प्रथम तो संसारविषै नरकादिकका दुःख जानि वा स्वर्गादिविषे भी जन्म-मरणादिकका दुःख जानि संसारत उदास होय मोक्षको चाहैं हैं । सो इनि दुःखनिको तो दुःख सब ही जाने है । इन्द्र अहमिन्द्रादिक विषयानुरागर्ते इन्द्रियजनित सुख भोगवे हैं ताको भी दुःख जानि निराकुल सुख अवस्थाको पहचानि मोक्ष चाहे हैं, सोई सम्यग्दृष्टि जानना । बहुरि विषयसुखादिकका फल नरकादिक है, शरीर अशुचि विनाशीक है-पोषने योग्य नाहीं, कुटुम्बादिक स्वार्थके सगे हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका दोष विचारि तिनिका तो त्याग करे हैं। व्रतादिकका फल स्वर्गमोक्ष है, तपश्चरणादि पवित्र अविनाशी फलके दाता है, तिनकरि शरीर सोखने योग्य है, देव गुरु शास्त्रादि हितकारी हैं, इत्यादि परद्रव्यनिका गुण विचारि तिनहीको अंगीकार करे है। इत्यादि प्रकारकरि कोई परद्रव्यको बुरा जानि अनिष्ट श्रद्ध है, कोई परद्रव्य को भला जानि इष्ट श्रद्धे है। सो परद्रव्यविषै इष्ट अनिष्टरूप श्रद्धान सो मिथ्या है। बहुरि इसही श्रद्धानते याकै उदासीनता भी द्वेषबुद्धि रूप हो है । जातैं काहूको बुरा जानना, ताहीका नाम द्वेष है। कोऊ कहेगा, सम्यग्दृष्टी भी तो बुरा जानि परद्रव्यको त्याग है । ताका समाधान - सम्यग्दृष्टी परद्रव्यनिको बुरा न जाने है। अपना रागभावको बुरा जाने है। आप रागभावको छोरै, तातै ताका कारणका भी त्याग हो है । वस्तु विचारै कोई परद्रव्य तो बुरा भला है। नाहीं ।
SR No.090284
Book TitleMokshmarga Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Niraj Jain, Chetanprakash Patni, Hasmukh Jain
PublisherPratishthacharya Pt Vimalkumar Jain Tikamgadh
Publication Year
Total Pages337
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size10 MB
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